रीतिकाल, हिन्दी साहित्य का एक महत्वपूर्ण युग है, जो मुख्यतः 17वीं और 18वीं शताब्दी के बीच पनपा। इस युग की कविताओं और साहित्यिक प्रवृत्तियों को समझने के लिए इसके उदय के ऐतिहासिक, सामाजिक, और साहित्यिक कारणों का अध्ययन आवश्यक है।
1. आश्रयदाताओं की रुचि और सामाजिक संदर्भ
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, रीतिकालीन साहित्य का विकास जनता की रुचि से नहीं, बल्कि आश्रयदाताओं की रुचि के कारण हुआ। मुगल साम्राज्य के पतन और क्षेत्रीय राजाओं के उदय के कारण साहित्य में वीरता और कर्मण्यता का स्थान घट गया। दरबारी कवि अपने आश्रयदाताओं की विलासप्रियता और श्रृंगारिकता की अभिरुचि को ध्यान में रखते हुए काव्य रचना करते थे।
2. सामाजिक और राजनीतिक पतन
डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, यह युग सामाजिक और राजनीतिक पतन का काल था। जनता बाहरी संघर्षों और आशा-निराशा के बीच अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम खोज रही थी। धर्म और शास्त्र चिंतन के अभाव ने कवियों को श्रृंगार और नारी सौंदर्य की ओर प्रेरित किया। इस युग का साहित्य सामाजिक जीवन से कटकर व्यक्तिगत और कामुक भावनाओं में अधिक केंद्रित हो गया।
3. संस्कृत साहित्य का प्रभाव
हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना था कि रीतिकालीन कवि संस्कृत के उत्तरकालीन साहित्य से प्रभावित थे। इस युग में नायिका भेद, अलंकार, और श्रृंगारिकता जैसे विषयों को प्राथमिकता दी गई। कवि पूर्वनिर्धारित साहित्यिक नियमों और वर्गीकरणों का अनुसरण करते हुए शास्त्रीय ढंग से कविता रचते थे।
4. दरबारी संस्कृति और साहित्य
रीतिकालीन काव्य मुख्यतः दरबारी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है। इसमें सामंती समाज के विलासितापूर्ण जीवन और शब्द-सज्जा को केंद्र में रखा गया। कवियों ने जनसाधारण की भावनाओं और उनके संघर्षों की अनदेखी कर सामंती रईसों और राजाओं के ऐश्वर्य, श्रृंगार, और विलास को महत्व दिया।
विशेषताएँ:
- श्रृंगारिकता: इस युग में श्रृंगार रस को प्रमुख स्थान मिला, जिसमें शृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों को चित्रित किया गया।
- लक्षण ग्रंथ: नायिका भेद, अलंकार, और रसों पर आधारित ग्रंथों का निर्माण हुआ।
- शब्द सौंदर्य: कविताओं में भाषाई चमत्कार और अलंकारों का अत्यधिक प्रयोग हुआ।
- सामंती रुचि: कविताएँ सामान्य जनता के बजाय दरबारी जीवन के वैभव और विलास को दर्शाती हैं।
निष्कर्ष:
रीतिकाल का साहित्य जनमानस के दुःख और संघर्ष से दूर होकर सामंतों और दरबारों के वैभव का प्रतिबिंब था। यद्यपि इस युग में कविताओं की शास्त्रीयता और कलात्मकता उच्च स्तर की थी, लेकिन यह साहित्य सामाजिक यथार्थ और आम जनता के जीवन से कटा हुआ था। रीतिकालीन काव्य, दरबारी संस्कृति का प्रतीक बनकर, साहित्य की मानवतावादी दृष्टि से दूर हो गया।