सुंदरदास: निर्गुण भक्ति के सुशिक्षित संत कवि

सुंदरदास: निर्गुण भक्ति के सुशिक्षित संत कवि

परिचय

सुंदरदास (1596-1689 ई.) हिंदी साहित्य के निर्गुण भक्ति धारा के प्रमुख संत कवि थे। वे दादू पंथ के अनुयायी थे और बाल्यकाल में ही संत दादू दयाल के शिष्य बन गए थे। उनका जन्म राजस्थान के धौसा नामक स्थान पर हुआ था। उन्होंने काशी में 30 वर्ष की आयु तक गहन अध्ययन किया और देशभर में भ्रमण कर दादू पंथ का प्रचार किया।

विशेषताएँ

  1. शिक्षा और विद्वत्ता – निर्गुण संतों में सुंदरदास सर्वाधिक सुशिक्षित और शास्त्रज्ञ माने जाते हैं।
  2. काव्यशैली – गेयपद और दोहे के साथ-साथ कवित्त और सवैये भी लिखे।
  3. अलंकारिक भाषा – उनकी भाषा परिष्कृत और अलंकारयुक्त है।
  4. सामाजिक चेतना – उनके काव्य में लोकधर्म, लोकनीति और समाज की मर्यादा का ध्यान रखा गया है।
  5. स्त्री जीवन का चित्रण – उनकी कविताओं में पतिव्रता स्त्रियों के आदर्श जीवन का सुंदर वर्णन मिलता है।

प्रमुख रचनाएँ

  1. सुंदर विलास – उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति, जिसमें भक्ति, नीति और आचार-संबंधी विचार हैं।
  2. उनके कुल 42 ग्रंथों का उल्लेख मिलता है।

उनकी भक्ति भावना

सुंदरदास निर्गुण भक्ति परंपरा के संत थे, परंतु उनके काव्य में गृहस्थ धर्म, नैतिकता और सामाजिक मर्यादा का भी चित्रण मिलता है।

प्रसिद्ध उद्धरण

“पति ही है ज्ञान ध्यान, पति ही है पुण्य दान।
पति ही है तीर्थ न्हान, पति ही को मत है।
पति बिनु पति नाहिं, पति बिनु गति नाहिं
सुंदर सकल बिधि एक पतिव्रत हैं।।”

इस उद्धरण में उन्होंने स्त्री के पतिव्रता धर्म का महत्त्व दर्शाया है, जो उनकी सामाजिक चेतना को प्रकट करता है।

निष्कर्ष

सुंदरदास केवल संत कवि ही नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य के निर्गुण भक्ति काव्य के विद्वान और विशिष्ट रचनाकार भी थे। उनका काव्य भक्ति, नीति और समाज को जोड़ने वाला एक महत्वपूर्ण साहित्यिक स्रोत है।

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