भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्य: मम्मट, क्षेमेन्द्र, विश्वनाथ एवं अन्य की तुलनात्मक समीक्षा

भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्य: मम्मट, क्षेमेन्द्र, विश्वनाथ एवं अन्य की तुलनात्मक समीक्षा”

आचार्यप्रमुख ग्रंथकालमुख्य योगदान / विचारविशेषताएँ
आचार्य मम्मटकाव्यप्रकाशलगभग 11वीं-12वीं शताब्दी– काव्य के लक्षण: शब्द और अर्थ का सौन्दर्य। – अलंकार, ध्वनि, गुण, दोष, रस आदि का समन्वित विवेचन। – ध्वनि सिद्धांत का समर्थन।संस्कृत काव्यशास्त्र का सर्वाधिक लोकप्रिय और अध्ययन हेतु मान्य ग्रंथ।
क्षेमेन्द्रकविकल्पद्रुम, सुवृत्ततिलक, औचित्यविचारचर्चालगभग 11वीं शताब्दीऔचित्य (समुचित सामंजस्य) को काव्य का प्राण माना। – भाषा, विषय, पात्र, स्थान, काल, भाव आदि में औचित्य पर बल।सरल, व्यावहारिक दृष्टिकोण; कवियों को रचनात्मक मार्गदर्शन।
विश्वनाथसाहित्यदर्पणलगभग 14वीं शताब्दी– रस को काव्य का आत्मा माना। – रस-सिद्धांत का विस्तृत प्रतिपादन। – संक्षेप में संपूर्ण काव्यशास्त्र का विवेचन।स्पष्ट, सरस और संगठित शैली; हिंदी कवि आचार्यों पर भी प्रभाव।
भरत मुनिनाट्यशास्त्रलगभग 2वीं शताब्दी ई.पू. – 2वीं शताब्दी ई.– रस-सिद्धांत का प्रारंभिक प्रतिपादन। – नाट्यकला, अभिनय, संगीत, छंद आदि का आधारभूत ग्रंथ।संस्कृत नाट्यकला का विश्वकोश; रस के 8 (बाद में 9) प्रकार।
आनन्दवर्धनध्वन्यालोक9वीं शताब्दीध्वनि सिद्धांत का प्रतिपादन। – काव्य की आत्मा ध्वनि (अर्थ का सूक्ष्म संकेत) मानी।अभिनवगुप्त ने इसका विस्तृत व्याख्यान किया।
भामहकाव्यालंकारलगभग 7वीं शताब्दी– काव्य में अलंकार को प्रधानता। – शब्द और अर्थ का सुंदर योग काव्य का लक्षण।अलंकारवादी परंपरा के प्रमुख आचार्य।
दंडीकाव्यादर्शलगभग 7वीं शताब्दी– शब्द और अर्थ दोनों में शुद्धि पर बल। – गुण और दोष का विस्तार से विवेचन।भामह के समकालीन, परन्तु दृष्टिकोण भिन्न।