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स्वच्छन्द प्रेम के निर्भीक कवि: ठाकुर बुन्देलखण्डी
हिंदी साहित्य में ‘ठाकुर’ नाम से तीन कवि प्रसिद्ध हुए, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण ठाकुर बुन्देलखण्डी माने जाते हैं। उनका पूरा नाम लाला ठाकुरदास था और वे ‘ठाकुर’ जाति के कायस्थ थे। उनका जन्म विक्रमी संवत् 1823 (1766 ई.) में ओरछा (बुन्देलखण्ड) में हुआ।
दरबारी जीवन और प्रतिष्ठा
ठाकुर बुन्देलखण्डी न केवल उत्कृष्ट कवि थे, बल्कि उन्हें बुन्देलखण्ड और आसपास के राजदरबारों में उच्च सम्मान प्राप्त था। वे जैतपुर के राजा केसरीसिंह, राजा परीछत, जोधपुर, बिजावर और हिम्मत बहादुर के दरबारों से जुड़े रहे। उनकी निर्भीकता और आत्मसम्मान की भावना ने उन्हें दरबारी चापलूसों से अलग एक प्रखर व्यक्तित्व प्रदान किया।
काव्यगत विशेषताएँ: आत्मानुभूति और स्वच्छन्दता
ठाकुर बुन्देलखण्डी परंपरागत रीति पर नहीं चले। उन्होंने कल्पनालोक और बनावटी उपमाओं से परहेज़ करते हुए स्वानुभूत प्रेम, नीति, और यथार्थ को अपनी कविता का आधार बनाया। उनके अनुसार:
“कविता आत्मानुभूति से उपजती है, न कि कल्पित उपमाओं से।”
उन्होंने रीतिबद्ध कवियों पर व्यंग्य करते हुए लिखा:
“सीखि लीन्हौ मीन मृग खंजन कमल नैन,
सीखि लीन्हौ यश औ प्रताप को कहानो है।
सीखि लीन्हौ कल्पवृक्ष कामधेनु चिन्तामनि,
सीखि लीन्हौ मेरू औ कुबेर गिरि आनो है।।
ठाकुर कहत याकी बड़ी है कठिन बात,
याको नहिं भूलि कहूँ बाँधियत बानो है।।”
यह व्यंग्य कवियों की नकली सजावट और अलंकारप्रियता पर करारा प्रहार है।
निर्भीकता का परिचायक कवि
एक बार जब दरबार में हिम्मत बहादुर ठाकुर पर झल्ला उठे, तो ठाकुर ने अत्यंत आत्मसम्मान के साथ कविता सुनाई, जिसमें उन्होंने एक सच्चे सेवक के गुण गिनाए:
“वेई नर निर्णय निदान में सराहे जात,
सुखन अघात प्याला प्रेम को पिए रहैं।
हरि रस चंदन चढ़ाय अंग अंगन में,
नीति को तिलक, बेंदी जस की दिए रहैं।।”
जब अपमान बढ़ा, तो उन्होंने तलवार तक खींच ली और निडर होकर कहा:
“सेवक सिपाही हम उन राजपूतन के,
दान जुद्ध जुरिबे में नेकु जे न मुरके।
नीति देनवारे हैं मही के महिपालन को,
हिये के बिसुद्ध हैं, सनेही साँचे उर के।।”
यह प्रसंग दिखाता है कि ठाकुर केवल कवि नहीं, बल्कि स्वाभिमानी और साहसी व्यक्तित्व के धनी भी थे।
प्रेम का स्वच्छन्द चित्रण
ठाकुर मूलतः प्रेम निरूपक कवि थे। उन्होंने स्वच्छन्द भावनाओं को सहज भाषा में व्यक्त किया, जिसमें प्रकृति का सौंदर्य और प्रेम की कोमल अनुभूतियाँ झलकती हैं:
“पवस तें परदेश तें आय मिले पिय औ मन भाई भई है।
दादुर मोर पपीहरा बोलत, तापर आनि घटा उनई है।।
ठाकुर वा सुखकारी सुहावनि दामिनि कौंधि कितैं को गई है।
री अब तो घन घोर घटा गरजौ बरसौ तुम्हैं धूर दई हैं।।”
इस कविता में वर्षा, विरह, और पुनर्मिलन की कोमल अनुभूति इतनी सुंदरता से उकेरी गई है कि पाठक भावविभोर हो उठता है।
साहित्य में स्थान
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ठाकुर को “सच्ची उमंग के कवि” बताया है — न कृत्रिमता, न आडंबर, न झूठी कल्पना। उनकी रचनाओं में जीवन के यथार्थ, प्रेम, नीति, और साहसिकता की सजीव अभिव्यक्ति है।
उनकी प्रमुख रचना “ठाकुरठसक” लाला भगवानदीन द्वारा प्रकाशित की गई थी।
निष्कर्ष
ठाकुर बुन्देलखण्डी न केवल बुन्देलखण्ड की साहित्यिक परंपरा के उज्ज्वल नक्षत्र थे, बल्कि वे हिंदी कविता में स्वच्छन्द प्रेम, निर्भीकता, और आत्मानुभूति-प्रधान शैली के अनूठे कवि थे। वे न तो सत्ता के दबाव में झुके, न परंपरा की जंजीरों में बंधे। आज के समय में उनके जैसे सच बोलने वाले निर्भीक साहित्यकारों की आवश्यकता और भी अधिक है।