गुरु गोविन्दसिंह जी: सिख धर्म के योद्धा संत और साहित्यकार

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गुरु गोविन्दसिंह जी: सिख धर्म के योद्धा संत और साहित्यकार

गुरु गोविन्दसिंह (1666-1708 ई.) सिख धर्म के दसवें और अंतिम मानव गुरु थे, जिनका जन्म विक्रमी संवत् 1723 (1666 ई.) में बिहार की राजधानी पटना में हुआ था। उनके पिता गुरु तेगबहादुर और माता गुजरीबाई थीं। गुरु गोविन्दसिंह न केवल एक महान योद्धा थे, बल्कि वे संत, कवि और प्रशासक भी थे। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी और प्रेरणादायक था।

खालसा पंथ की स्थापना

गुरु गोविन्दसिंह जी ने 1699 में खालसा पंथ की स्थापना कर सिख धर्म को एक नई दिशा दी। यह पंथ अत्याचार के विरुद्ध खड़ा हुआ और धर्म की रक्षा हेतु समर्पित रहा। उन्होंने अपने अनुयायियों को “सिंह” (शेर) उपनाम दिया और पाँच “ककार” (केश, कंघा, कड़ा, कच्छा, कृपाण) को अनिवार्य किया।

साहित्यिक योगदान

गुरु गोविन्दसिंह जी साहित्य के भी परम प्रेमी थे। उन्होंने ब्रजभाषा, पंजाबी और फारसी में अनेक ग्रंथों की रचना की। सिख परंपरा में जहाँ निर्गुण भक्ति का प्रभाव था, वहीं उन्होंने सगुण भक्ति की भी अभिव्यक्ति की — विशेष रूप से ‘चण्डी चरित’ जैसे ग्रंथों में। उनकी रचनाओं में वीर रस की प्रधानता होती है, जिससे उनका योद्धा स्वभाव झलकता है।

कुछ प्रमुख रचनाएँ:

चण्डी चरित: शक्ति की आराधना पर आधारित वीर रसपूर्ण ग्रंथ।

चौबीस अवतार: विष्णु के 24 अवतारों का वर्णन, जिसमें शृंगार रस भी देखा जा सकता है।

सुमतिप्रकाश, सर्वलोहप्रकाश, प्रेमसुमार्ग, बुद्धिसागर: नीति, भक्ति और जीवन के आदर्शों को दर्शाने वाली रचनाएँ।

भक्ति और समाज-सुधारक दृष्टिकोण

गुरु गोविन्दसिंह जी की रचनाएँ केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और सामाजिक जागरण से भी ओतप्रोत थीं। वे आडंबर और पाखंड के विरोधी थे। उन्होंने ढोंगी साधुओं की कड़ी आलोचना करते हुए लिखा:

“ध्यान लगाय ठग्यो सब लोगन, सीस जटा नख हाथ बढ़ाये।

लाय भभूत मल्यौ मुख ऊपर, देव अदैव सबै डहकाये।।

लोभ के लागे फिरयो घर ही घर, जोग के न्यास सबै बिसराये।

लाज गई कछु काज करयो नहीं, प्रेम बिना प्रभु ध्यान न आये।।”

वे मानते थे कि परमात्मा की प्राप्ति के लिए बाहरी आडंबर नहीं, बल्कि मन की शुद्धता और प्रेम आवश्यक है।

नैतिक शिक्षाएँ और प्रेरणा

उनकी यह पंक्ति आज भी लोगों को प्रेरणा देती है:

“92 धन्य जियौ तेहि को जग में, मुखते हरि चित्त जु शुद्ध विचारैं।

देह अनित्त न नित्त रहै, जस नाव चढ़ें भव सागर तारै।”

गुरु गोविन्दसिंह जी का जीवन एक आदर्श था – धर्म के लिए बलिदान, अन्याय के विरुद्ध आवाज़, और साहित्य व भक्ति से भरा हुआ। उनका व्यक्तित्व और विचार आज भी सिखों ही नहीं, सम्पूर्ण मानवता के लिए प्रकाशस्तंभ हैं।र्ग और ‘बुद्धिसागर’। इनकी भक्ति-नीतिपरक रचना का उदाहरण देखिए –

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