हार की जीत
माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। वह घोड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान था । बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कहकर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देख प्रसन्न होते थे । आप गाँव से बाहर छोटे-से मंदिर में रहते थे और भगवान का भजन करते थे। सुल्तान के बिना जीना उनके लिए बहुत ही कठिन था।
खड्गसिंह उस इलाके का कुख्यात डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका मन उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास जा पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया।
‘कहो, इधर कैसे आ गए ?’
‘विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे ।’
‘मैने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है ।’
‘सुल्तान की चाह खींच लाई ।’ ‘उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी । ‘ ‘कहते हैं, देखने में भी बड़ा सुंदर है।’ ‘क्या कहना ! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है। ‘ ‘इच्छा तो बहुत दिनों से थी, लेकिन आज आ सका।’
बाबा भारती और खड्गसिंह अस्तबल में पहुँचे । बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से और खड्गसिंह ने घोड़ा देखा आश्चर्य से । वह कुछ देर तक चुपचाप खड़ा रहा। उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला- “बाबा, इसकी चाल न देखी, तो क्या देखा ?”
बाबा जी भी मनुष्य ही थे। अपनी वस्तु की प्रशंसा दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया । घोड़े को खोलकर बाहर ले गए। घोड़ा वायुवेग से उड़ने लगा। उसकी चाल देखकर खड्गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए, उस पर वह अपना अधिकार समझता था। जाते-जाते उसने कहा “बाबा जी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूंगा।”
बाब भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती । सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रतिक्षण खड्गसिंह का भय लगा रहता । परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाई मिथ्या समझने लगे ।
संध्या का समय था । बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई “ओ बाबा, इस कँगले की सुनते जाना।”
आवाज़ में करुणा थी । बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है । बोले – “क्यों, तुम्हें क्या कष्ट है ?”
अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा “बाबा, मैं दुखिया हूँ मुझ पर दया कीजिए, रामवाला यहाँ से तीन मील दूर है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।’
“वहाँ तुम्हारा कौन है ?” “दुर्गादत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा । मैं उनका सौतेला भाई हूँ ।” बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे
सहसा उन्हें एक झटका सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। वह खड्गसिंह था.
बाबा भारती “ज़रा ठहर जाओ।” कुछ देर तक चुप रहे और इसके पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले
खड्गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक दिया और उसकी गर्दन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा “बाबा जी, यह घोड़ा अब न दूंगा।”
“परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड्गसिंह ठहर गया। बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा, जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका। मैं तुमसे इसे – वापस करने के लिए न कहूँगा, परंतु खड्गसिंह केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”
“बाबा जी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हैं, केवल यह घोड़ा न दूँगा।”
“अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इसके विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”
खड्गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परन्तु बाबा भारती ने स्वयं उससे कहा “इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।” इससे – क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है ? खड्गसिंह ने बहुत सोचा, सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका । हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दी और पूछा, “बाबा जी, इसमें आपको क्या डर है ?” सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया “लोगों को यदि इस घटना का पता चल गया, तो वे किसी गरीब पर विश्वास न करेंगे।”
यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही न रहा हो ।
बाबा भारती चले गए, परंतु उनके शब्द खड्गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूंज रहे थे। सोचताथा कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है ? इन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाई खिल जाता था। कहते थे – ‘इसके बिना मैं रह न सकूँ गा । इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं, भजनभक्ति न कर रखवाली करते रहे । परन्तु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक न दिखाई पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग गरीबों पर विश्वास करना न छोड़ दें। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं, देवता है ।
रात्रि के अंधकार में खड्गसिंह बाबा भारती के मंदिर में पहुँचा । चारों ओर सन्नाटा था । आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँव के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था । खड्गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परन्तु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था । खड्गसिंह ने आगे बढ़कर सुल्तान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे।
रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरम्भ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात् इस प्रकार, जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े, परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई, साथ ही घोर निराशा ने पाँवों को मन- मनभर का भारी बना दिया। वे वहीं रुक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया। वह ज़ोर से हिनहिनाया।
अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिनों से बिछुड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो । बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते।