दू ठन नान्हे कहानी
हीरा अउ ओस के बूंद
हीरा ह जतका सुग्घर होथे ओतके महँगी घलो होथे। अइसने सुग्घर अउ महँगी हीरा ल जंगल म परे परे गजब दिन बीत गे । ओकर उपर कोनो मनखे के नजर नइ परिस, काबर के ओ हीरा के चरों-खुंट म काँदी जाम गे रहय । काँदी के एक ठन पत्ता ह ओकर उपर ओरमे रहय । काँदी के पत्ता म परे ओस के बूँद ह बड़ नीक लागत रहय । जब हवा म काँदी ह हाले, तब ओस के बूँद ह मोती कस चमके लागय। अइसे लागे जइसे हीरा मोती दूनो ह एके जघा सकला गे हवय। ये झाँकी ल देख एक बड़े न झिंगुरा ह हीरा ल कहिथे “हे महराज ! मोर असन छोटे जीव के उपर हर किरपा बने रहय ।” अपन ल ‘महराज’ कहत सुन के हीरा ह घमंड म फुलगे । झिंगुरा ह फेर कहिथे – ‘महराज’, काँदी के उपर चमकइया जिनिस ह तुहर कोनो सगा -सहोदर लागत है। ये कोन आय ?” ये बात ल सुन के हीरा के जीव बगिया गे ओ ह रिस म झिंगुरा ल कहिथे – ” तोला मँय बुधमान समझत रेहेंव, फेर तँय तो निचट भोकवा हस । अरे झिंगुरा मोर कुल ह बड़ उँच हावे, अउ ये ओ बूँद ह तो भिखमंगा आय। एखर पटंतर तँय मोला देखत हवस रे । जा भाग जा, ईंहा ले । दूनों झन भिखमंगा आव।” हीरा के रिस ल देख के झिंगुरा ह सकपका गे। आधा डर अउ आधा बल करके झिंगुरा ह कहिथे – “महराज ! मोला छिमा करव तुमन जइसे सुग्घर तइसने यहु ह सुग्घर दिखत हे, एकरे कारन मैं पूछ पारेंव।” अतका कहिके झिंगुरा ह काँदी म लुका गे । ओस के बूंद हीरा अउ झिंगुरा के गोठ ल कलेचुप सुनत रहिस
ओतके समे एक ठन बड़े जन चिरइ ह अगास ले उही तिर टप ले उतरिस। पियास म ओकर टोंटा ह सुखागे रहिस। ओ ह हीरा ल ओस के बूंद समझ के अपन चोंच ल ओकर उपर मारिस, त ओला अपन चोंच ल पखरा म मारे कस लागिस ओ ह कहिस- “अरे, मैं तो एला ओस के बूँद समझे रेहेंव। ये तो पथरा बरोबर ठाहिल हीरा आय। ये हा मोर पियास का बुझाही ? एकर मोला कोनो जरूरत नइ है, अब मोला बिगर पानी के मरनच परही।” हीरा ये बात ल सुनके रिसागे ओ ह चिरइ ल कहिस-“अरे, चिरइ ! काली के मरड्या तैं आजे मर जा । तोर मरे ले दुनिया सुन्ना नइ हो जाय।”
ओस के बूंद ह दूनो के बात ल सुन के विचार करिस के ओकरे जीवन अउ सुघरइ ह धन्य होथे जेन मन पर के खातिर अपन परान ल घलो त्याग देथें ओस के बूंद ह चिरइ ल कहिथे “सुन चिरइ भाई, मैं ह ओस के नानकुन बूंद आँव। मोला पिये ले तुहर परान बाँच जाही त मोर नानकुन जीवन अउ मोती कस सुघरइ ह धन्य हो जाही।” ओस के बूंद के गोठ ल सुन के चिरइ ह कहिथे “हाँ, नहीं मोर परान ल बचा सकत हस। तैं धन्य हस। अतका कहिके चिरड़ ह ओस के बूंद ल अपन चोंच ले अमर लिस। ओखर टोंटा ह जुड़ाय कस लागिस अउ परान ह बाँच गे। झिंगुरा ह काँदी म सपटे सपटे ये घटना ल देखिस अउ सोंचिस के एक के हिरदे ह पथरा बरोबर कठोर हे त दूसर के हिरदे म मया दया के अमरित भरे है।
महतारी के रतन
माधो बाबू के घर दुर्गा पूजा बड़ धूम धामले मनाय जाय। माधो बाबू के परिवार वाला मन ये पइँत थोरकिन जादा तियारी करे हावय। खेल-तमाशा अउ नाचा-पेखन के घलो जोरा करे रहिन हे महल बरोबर मकान ह बिजली के बत्ती ले जगर-मगर करत रहिस हे सोन-चाँदी अउ हीरा ले सजे नारी परानी मन आवत-जात रहँ । बिपिन ह माधो बाबू के परोसी रहय । एकरे सेती वोह ह पूजा देखे बर आय रहिस। उहाँ सजे धजे नारी- परानी मन ल देखके ओला अपन महतारी के सुरता आ गे बाप ल बीते गजब दिन हो गे रहिस हे। बिपिन ल अपन बाप के सुरता घलो नई ए| बपुरी दाई ह बनी भुती कर के घर ल चलावत है। ओहा सोंचथे इहाँ सोन-चाँदी म लदाय नारी परानी मन हँसी-ठट्ठा करत किंजरत हवँय, अउ उहाँ बिचारी दाई ह बनी-भुती म थके-माँदे आके मोर बर भात राँधत होही । कतेक अंतर हे दूनो घर म । बिपिन ह सोंचे-बिचारे के उमर म पहुँचत रहिस। ओकर मन उदास हो गे। माधो बाबू के घर के चकाचौंध म ओखर मन नइ लगिस । ओहा ह घर लहुट गे।
बिपिन के दाई चूल्हा तीर बइठे भात राँधत राहय । गुगवावत चूल्हा ल कभु निहर के फुंकनी म फुंकत घलो जाय। बिपिन के दाई के नजर बिपिन उपर नइ परिस। आज बिपिन के मन ह घर म घलो नइ लगिस। ओहा उठिस अउ नँदिया कोती निकलगे ।
धीरे-धीरे संझा होये लगिस । सुरुज के पिंवरा किरन ह बादर ल सोन के पानी म पोते कस पिंवरा दिस। बादर ह अइसे लागे, जइसे सोन बगरे हे। बिपिन ह सोंचथे- कहूँ मैं बादर म चढ़े सकर्तेवत बोरा भर सोन सकेल के ला लेतेंव। मोर गरीबिन महतारी ह सुख के दिन ल देख लेतिस । फेर बादर म चढ़ना तो मुसकिल है। कोजनी कोन ह अतेक सोन ल बादर मं बगरा दे हे । ओतके बेर ओला कोनो मनखे के आरो मिलथे। बिपिन ह लहुट के देखथे, त ओहा अपन पाछू म बाबू ल ठाढ़े पाथे। सगा मन ल जताके माधो बाबू ह थोरिक हवा ले बर नँदिया कोती निकले रहिस हे ।
“कस ग बिपिन ! तैं ह खेल तमाशा देखे बर नइ गे ?” माधो बाबू ह पूछिस । “गे रेहेंव, बाबू साहेब ! फेर लहुट के आ गेंव” बिपिन ह बताइस । “काबर?” माधो बाबू ह पुछिस ।
बिपिन ल लबारी बोले के आदत नइ रहिस। ओ ह अपन मन के सबो हाल ल बता दिस। बिपिन के बात ल सुन के माधो बाबू हँस परिस अउ हँसते-हँसत कहिस – “अरे बिपिन ! तँय फोकट दुखी होवत हस। कोन कहिथे के तोर महतारी ह गरीबिन है। ओकर तीर तो अइसे रतन हे, जेन मोरो घर म नइ हे।”
“नइ हे ! मैं तो अपन महतारी मेर आज ले कोनो रतन ल नइ देखे हँव । बिपिन ह किहिस ।
“बिपिन तोला मोर बात म भरोसा नइ हे, त तैं अपन महतारी ल पूछ लेबे ।” माधो बाबू कहिस। बिपिन ह माधो बाबू के गोठ ल सुनके घर कोती लहुटगे । माधो बाबू घर खेल-तमाशा होत राहय । भीड़ ह सइमों सइमों करत रहिस। बिपिन ह सिद्धा अपन घर म खुसर गे ।
“दाई दाई !” बिपिन ह चिल्लाइस । ” काय बेटा ?” बिपिन के दाई कहिस।
“दाई ! तोर मेर कइसन रतन हे ? महूँ ल देखा तो। माधो बाबू ह कहत रहिस के तोर महतारी तीर जइसन रतन हे वइसन रतन ओकरो घर म नइये, का ये बात ह सही हे दाई ?”
“हाँ बेटा ! मोर मेर जइसन रतन हे, माधो बाबू के घर म घलो नइ है।”
” देखा तो, महूँ देखतेंव रतन ल । “
“आ बेटा, मोर तीर आ । “बिपिन के दाई ह बिपिन ल अपन तीर बलाइस जब बिपिन ह अपन महतारी तीर पहुँच गे, त ओकर दाई ह ओला काबाभर पोटार के अपन हिरदे ले लगा लिस अउ कहिस- “बेटा, तहीं मोर रतन अस, मोर खजाना अस, दाई-ददा बर संतान ले बड़के कोनो रतन नइ होय। संतान ह दाई-ददा के जिनगी ल रतन बरोबर चमकाथे ।” बिपिन ल पहिली तो बड़ अचरज होइस, फेर पाछू ओहा ये बात ल समझ गे।
बिपिन ह पढ़-लिख के बहुत बड़ साहेब बन गे, फेर आजो तीस बरिस पहिली के घटना ला सुरता करथे।