कक्षा 10 संस्कृत पाठ 6. प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुहृद – संवाद गद्यपाठः
प्राणेभ्योऽपि प्रियः सुह्रद्
1. चाणक्यः – वत्स! मणिकारश्रेष्ठिनं चन्दनदासमिदानीं द्रष्टुमिच्छामि।
शिष्यः – तथेति (निष्क्रम्य चन्दनदासेन सह प्रविश्य) इतः इतः श्रेष्ठिन्! (उभौ परिक्रामतः)
शिष्यः – (उपसृत्य) उपाध्याय! अयं श्रेष्ठी चन्दनदासः।
चन्दनदासः – जयत्वार्यः
चाणक्यः – श्रेष्ठिन्! स्वागतं ते। अपि प्रचीयन्ते संव्यवहाराणां वृद्धिलाभा:?
चन्दनदासः – (आत्मगतम्) अत्यादरः शङ्कनीयः। (प्रकाशम्) अथ किम्। आर्यस्य प्रसादेन अखण्डिता में वाणिज्या।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! प्रीताभ्यः प्रकृतिभ्यः प्रतिप्रियमिच्छन्ति राजानः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः, किं कियत् च अस्मज्जनादिष्यते इति।
शब्दार्थाः
वत्स – बेटा/प्रिय। मणिकारश्रेष्ठिनम् – मणियों का व्यापारी। तथा इति – वैसे ही हो। इतः इत: – इधर से-इधर से। प्रचीयन्ते – बढ़ रहे हैं। संव्यवहाराणाम् – व्यापारों के। वृद्धि लाभाः – बढ़ोत्तरी में लाभ। अत्यादर: – अधिक सम्मान। शङ्कनीयः – शंका के योग्य। अखण्डिता – अखंडित/परिपूर्ण। मे – मेरा। वाणिज्य – व्यापार। प्रीताभ्यः – प्रसन्न से। प्रतिप्रियम् – उपकार के बदले में किए गए उपकार। आज्ञापयतु – आज्ञा दें। कियत् – कितना। अस्मत् – मुझ (से)। जनात् – व्यक्ति से। इष्यते – चाहते हैं।
हिंदी अनुवाद
चाणक्य – बेटा (प्रिय)। जौहरी सेठ चन्दनदास को इस समय देखना (मिलना) चाहता हूँ।
शिष्य – ठीक है (वैसा ही हो) (निकलकर चन्दनदास के साथ प्रवेश करके) इधर-से-इधर से श्रेष्ठी (सेठ जी)! (दोनों घूमते है)
शिष्य – (पास जाकर) आचार्य जी! यह सेठ चन्दनदास है। चन्दनदास – आर्य की विजय हो
चाणक्य – सेठ! तुम्हारा स्वागत है। क्या व्यवहारों का (कारोबार में) लाभ बढ़ रहे हैं?
चन्दनदास – (मन-ही-मन में) अधिक सम्मान शंका के योग्य है। (प्रकट रूप से) और क्या। आर्य की कृपा से मेरा व्यापार अखण्डित है।
चाणक्य – अरे सेठ! प्रसन्न स्वभाव वालों (लोगों) से राजा लोग उपकार के बदले किए गए उपकार को चाहते हैं।
चन्दनदास – आर्य आज्ञा दें, क्या और कितना इस व्यक्ति से आशा करते हैं।
2. चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! चन्द्रगुप्तराज्यमिदं न नन्दराज्यम्। नन्दस्यैव अर्थसम्बन्धः प्रीतिमुत्पादयति। चन्द्रगुप्तस्य
तु भवतामपरिक्लेश एव। चन्दनदासः – (सहर्षम्) आर्य! अनुगृहीतोऽस्मि।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! स चापरिक्लेशः कथमाविर्भवति इति ननु भवता प्रष्टव्यः स्मः।
चन्दनदासः – आज्ञापयतु आर्यः। चाणक्यः – राजनि अविरुद्धवृत्तिर्भव।
चन्दनदासः – आर्य! कः पुनरधन्यो राज्ञो विरुद्ध इति आर्येणावगम्यते?
चाणक्यः – भवानेव तावत् प्रथमम्।
चन्दनदासः – (कर्णी पिधाय) शान्तं पापम्, शान्तं पापम्। कीदृशस्तुणानामग्निना सह विरोधः?
शब्दार्थाः
श्रेष्ठिन्! – हे सेठ। अर्थसम्बन्धः – धन का सम्बन्धी प्रीतिम् – प्रेम को। उत्पादयति – उत्पन्न करता है। अपरिक्लेश: – दुःख का अभाव। अनुगृहीतः – आभारी। आविर्भवति – उत्पन्न होता है। भवता – आप से आपके द्वारा। प्रष्टव्यः – पूछने योग्य है। अविरुद्धवृत्तिः-विरुद्ध व्यवहार वाला नहीं। अधन्यः-अभागा। अवगम्यते-माना जाता है। पिधाय-बन्द करके/छूकर के। शान्तं पापम्-क्षमा करें। तृणानाम्-घासों का।
हिंदी अनुवाद
चाणक्य – अरे सेठ! यह चन्द्रगुप्त का राज्य है नन्द का राज्य नहीं। नन्द का राज्य ही धन से प्रेम रखता है।
चन्द्रगुप्त तो आपके सुख से ही (प्रेम रखता है)। चन्दनदास – (खुशी के साथ) आर्य! आभारी हूँ।
चाणक्य – हे सेठ! और वह दुःख का अभाव कैसे उत्पन्न होता है यही आपसे पूछने योग्य है। चन्दनदास – आर्य आज्ञा दीजिए।
चाणक्य — राजा में (के लिए) विरुद्ध व्यवहार वाला न होओ (बनो)। चन्दनदास – आर्य! फिर कौन अभागा राजा के विरुद्ध है ऐसा आर्य समझते हैं।
चाणक्य – सबसे पहले तो आप ही। चन्दनदास – (कानों को छूकर/बन्द करके) क्षमा कीजिए, क्षमा कीजिए। सूखी घासों का आग के साथ कैसा विरोध?
3. चाणक्यः – अयमीदृशो विरोधः यत् त्वमद्यापि राजापथ्यकारिणोऽमात्यराक्षसस्य गृहजनं स्वगृहे रक्षसि।
चन्दनदासः – आर्य! अलीकमेतत्। केनाप्यनार्येण आर्याय निवेदितम्।
चाणक्यः – भो श्रेष्ठिन्! अलमाशङ्कया। भीताः पूर्वराजपुरुषाः पौराणामिच्छतामपि गृहेषु गृहजनं निक्षिप्य देशान्तरं व्रजन्ति। ततस्तत्प्रच्छादनं दोषमुत्पावयति।
चन्दनदासः – एवं नु इवम्। तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।
चाणक्यः – पूर्वम् ‘अनृतम्’, इदानीम् “आसीत्” इति परस्परविरुद्धे वचने।
चन्दनदासः – आर्य! तस्मिन् समये आसीदस्मद्गृहे अमात्यराक्षसस्य गृहजन इति।
शब्दार्थाः
ईदृशः – ऐसा। राजापथ्यकारिणः – राजा का बुरा करने वाले। गृहजनम् – घर के व्यक्ति/परिवार के व्यक्ति को। अलीकम् – असत्य। एतत् – यह। अनार्येण – दुष्ट के द्वारा। श्रेष्ठिन् – हे सेठ। शङ्कनीय – शंका करने योग्य। पौराणाम् – नगरवासियों के। इच्छताम् अपि – चाहने से भी/इच्छा से भी। निक्षिप्य – रखकर। तत्प्रच्छादनम् – उसे छिपाने को। दोषम् – दोष को। पूर्वम् – पहले। अनृतम् – झूठ। गृहजन: – परिवार/पारिवारिक सदस्य।
हिंदी अनुवाद
चाणक्य – यह ऐसा विरोध है कि तुम आज भी राजा का बुरा करने वाले अमात्य राक्षस के परिवार को अपने घर में रखते हो।
चन्दनदास – हे आर्य! यह झूठ है। किसी दुष्ट ने आर्य को (गलत) कहा है।
चाणक्य – हे सेठ! आशंका (संदेह) मत करो। डरे हुए भूतपूर्व (पिछले/अपदस्थ) राजपुरुष पुर (नगर) वासियों की इच्छा से भी (उनके) घरों में परिवार जन को रखकर (छोड़कर) दूसरे स्थानों को चले जाते हैं। उससे उन्हें छिपाने का दोष पैदा होता है।
चन्दनदास – निश्चय से ऐसा ही है। उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।
चाणक्य – पहले ‘झूठ’ अब “था” ये दोनों आपस में विरोधी वचन हैं।
चन्दनदास – आर्य! उस समय हमारे घर में अमात्य राक्षस का परिवार था।
4. चाणक्यः – अथेदानी क्व गतः?
चन्दनदासः – न जानामि।
चाणक्यः – कथं न ज्ञायते नाम? भो श्रेष्ठिन्! शिरसि भयम्, अतिदूर तत्प्रतिकारः।
चन्दनदासः – आर्य! किं मे भयं दर्शयसि? सन्तमपि गेहे अमात्यराक्षसस्य गृहजनं न समर्पयामि, किं पुनरसन्तम्?
चाणक्यः – चन्दनदास! एष एव ते निश्चयः?
चन्दनदासः – बाढम्, एष एव मे निश्चयः।
चाणक्यः – (स्वागतम्) साधु! चन्दनदास साधु।
शब्दार्थाः
इदानीम् – इस समय। क्व – कहाँ। गतः – गया। अतिदूरम् – बहुत दूर। तत्प्रतिकारः – उसका समाधान। मे – मुझे। दर्शयसि – दिखाते हो। सन्तमपि – होने पर भी। गेहे – घर में। समर्पयामि – देता हूँ। असन्तम् – न होने पर। ते – तुम्हारा। बाढम् – ठीक है/हाँ। साधु – शाबाश।
हिंदी अनुवाद
चाणक्य – अब इस समय कहाँ गया है?
चन्दनदास – नहीं जानता हूँ।
चाणक्य – क्यों नहीं जानते हो? हे सेठ! सिर पर डर है, उसका समाधान बहुत दूर है।
चन्दनदास – आर्य! क्यों मुझे डर दिखाते हो? अमात्य राक्षस के परिवार के घर में होने पर भी नहीं समर्पित करता, फिर न होने पर तो बात ही क्या है?
चाणक्य – हे चन्दनदास! यही तुम्हारा निश्चय है?
चन्दनदास – हाँ, यही मेरा निश्चय है।
चाणक्य – (अपने मन में) शाबाश! चन्दनदास शाबाश।
5. सुलभेष्वर्थलाभेषु परसंवेदने जने।
क इदं दुष्करं कुर्यादिदानीं शिविना विना॥
शब्दार्थाः
सुलभेषु – सरल होने पर। अर्थलाभेषु – धन के लाभ। परसंवेदने – दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर। जने – संसार में। कः – कौन। इदम् – यह। दुष्करम् – कठिन। कुर्यात् – करे/कर सकता है। इदानीम् – इस संसार में। शिविना – शिवि के। विना – बिना।
हिंदी अनुवाद
दूसरे की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन का लाभ सरल होने की स्थिति में दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक शिवि को छोड़कर तुम्हारे अलावा कौन कर सकता है?
अंतिम श्लोक
का अन्वय तथा भावादि अन्वयः परस्य संवेदन अर्थलाभेषु सुलभेषु इदं दुष्करं कर्म जने (लोके) शिविना विना कः कर्यात।
भावः – परस्य परकीयस्य अर्थस्य संवेदने समर्पणे कृते सति अर्थलाभेषु सुलभेषु सत्सु स्वार्थ तृणीकृत्य परसंरक्षणरूपमेवं दुष्करं कर्म जने (लोके) एकेन शिविना विना त्वदन्यः कः कुर्यात्। शिविरपि कृते युगे कृतवान् त्वं तु इदानीं कलौ युगे करोषि इति ततोऽप्यतिशयित-सुचरितत्वमिति भावः।
अर्थ – दूसरों की वस्तु को समर्पित करने पर बहुत धन प्राप्त होने की स्थिति में भी दूसरों की वस्तु की सुरक्षा रूपी कठिन कार्य को एक शिवि को छोड़कर तुम्हारे अलावा दूसरा कौन कर सकता है?
आशय – इस श्लोक के द्वारा महाकवि विशाखत्त ने बड़े ही संक्षिप्त शब्दों में चन्दनदास के गुणों का वर्णन किया है। इसमें कवि ने कहा है कि दूसरों की वस्तु की रक्षा करनी कठिन होती है। यहाँ चन्दनदास के द्वारा अमात्य राक्षस के परिवार की रक्षा का कठिन काम किया गया है। न्यासरक्षण को महाकवि भास ने भी दुष्कर कार्य मानते हुए स्वप्नवासवदत्तम् में कहा है-दुष्कर न्यासरक्षणम्।
चन्दनदास अगर अमात्य राक्षस के परिवार को राजा को समर्पित कर देता, तो राजा उससे प्रसन्न भी होता और बहुत सा धन पारितोषिक के रूप में देता, पर उसने भौतिक लाभ व लोभ को दरकिनार करते हुए अपने प्राणप्रिय मित्र के परिवार की रक्षा को अपना कर्त्तव्य माना और इसे निभाया भी। कवि ने। चन्दनदास के इस कार्य की तुलना राजा शिवि के कार्यों से की है, जिन्होंने अपने शरणागत कपोत की रक्षा के लिए अपने शरीर के अंगों को काटकर दे दिया था। राजा शिवि ने तो सतयुग में ऐसा किया था, पर चन्दनदास ने ऐसा कार्य इस कलियुग में किया है, इसलिए वे और अधिक प्रशंसा के पात्र हैं।