चचा छक्कन ने केले खरीदे कक्षा 6 हिन्दी

चचा छक्कन ने केले खरीदे

एक बात मैं शुरू में ही कह दूँ। इस घटना का वर्णन करने में मेरी इच्छा यह हरगिज़ नहीं है कि इससे चचा छक्कन के स्वभाव के जिस अंग पर प्रकाश पड़ता है, उसके संबंध में आप कोई स्थायी राय निर्धारित कर लें । कई बार मैं खुद देख चुका हूँ कि शाम के वक्त चचा छक्कन बाज़ार से कचौरियाँ या गरियाँ या चिलगोज़े और मूंगफलियाँ एक बड़े-से रुमाल में बाँधकर घर पर सबके लिए ले आते हैं। और फिर क्या बड़ा और क्या छोटा, सबमें बराबर-बराबर बाँटकर खातेखिलाते रहे हैं। पर उस रोज़ अल्लाह जाने क्या बात हुई कि I

उस रोज तीसरे पहर के वक्त इतफाक से चचा छक्कन और बिंदो के सिवाय कोई भी घर में मौजूद न था मीर मुंशी साहब की पत्नी को बुखार था । चची दोपहर के खाने से निवृत होकर उनके यहाँ चली गई थी। बिन्नों को घर छोड़े जा रही थी कि चचा ने कहा “बीमार को देखने जा रही हो तो शाम से पहले भला क्या लौटना होगा ? बची पीछे घबराएगी साथ ले जाओ, वहाँ बच्चों में खेलकर बहली रहेगी।” चची बड़बड़ाती हुई बिन्नो को साथ ले गई, नौकर चची को मीर मुंशी साहब के घर तक पहुँचाने भर जा रहा था, मगर बिन्नो साथ कर दी गई तो बच्ची के लिए उसे भी वहाँ ठहरना पड़ा।

लल्लू के मदरसे का डी.ए.वी. स्कूल से क्रिकेट का मैच था। वह सुबह से उधर गया हुआ था। मोदे की राय में लल्लू अपनी टीम का सबसे अच्छा खिलाड़ी है। अपनी इस राय की बदौलत उसे अक्सर क्रिकेट मैचों का दर्शक बनने का मौका मिल जाता है। इसलिए साधारण नियमानुसार आज भी वह लल्लू की अरदली में था। दो बजे से सिनेमा का मैटिनी शो था। दद्रू चचा से इजाजत लेकर तमाशा देखने जा रहा था। छुट्टन को पता लगा कि दद् तमाशे में जा रहा है तो ऐन वक्त पर वह मचल गया और साथ जाने की जिद करने लगा। चचा ने उसकी पढ़ाई-लिखाई के विषय में चची का हवाला दे देकर एक छोटा किन्तु विचारपूर्ण भाषण देते हुए उसे भी अनुमति दे दी। बात असल यह है कि चची कहीं मिलने गई हों, तो बाकी लोगों को बाहर जाने के लिए इजाजत लेना कठिन नहीं होता। ऐसे स्वर्ण अवसरों पर चचा पूर्ण एकांत पसंद करते हैं। जिन कार्यों की ओर बहुत समय से ध्यान देने का अवसर नहीं मिला होता, ऐसे समय चचा ढूंढ-ढूंढ कर उनकी ओर ध्यान देते हैं ।

आज उनकी क्रियाशील बुद्धि ने चची की अनुपस्थिति में घर के तमाम पीतल के बरतन आँगन में जमा कर लिए थे। बिंदो को बाजार भेजकर दो पैसे की इमली मँगाई थी। आँगन में मोढ़ा डालकर बैठ  

गए थे । पाँव मोढ़े के ऊपर रखे हुए थे । हुक्के का नैचा मुँह से लगा हुआ था । व्यक्तिगत निगरानी में पीतल के बरतनों की सफाई की व्यवस्था हो रही थी।

बिंदो ने कुछ कहे बिना इमली लोटे में भिगो दी चचा ने अभिमान से संतोष का प्रदर्शन किया “कैसी बताई तरकीब १ ले, अब बावरचीखाने में जाकर बरतन माँजने की थोड़ी-सी राख ले आ। किस बरतन में लाएगा भला ?”

बिंदो अभी बावरची खाने से राख ला भी न पाया था कि दरवाजे पर एक फलवाले ने आवाज़ लगाई | कलकतिया के ले बेचने आया था। उसकी आवाज सुनकर कुछ देर तक तो चचा खामोश बैठे। रहे । कश अलबत्ता जल्दी-जल्दी लगा रहे थे। मालूम होता था, दिमाग में किसी किस्म की कशमकश जारी हुक्का पीते है । जब आवाज़ से मालूम हुआ कि फलवाला वापस जा रहा है तो जैसे बेबस से हो गए । बिंदो को आवाज़ दी “जरा जाकर देखियो तो, के ले किस हिसाब से देता है।’

बिंदो ने वापस आकर बताया ‘छह आने दर्जन ।

“छह आने दर्जन, तो क्या मतलब हुआ, चौबीस पैसे के बारह बारह दूनी चौबीस, यानी दो पैसे का एक ऊँहूँ, महेंगे हैं। जाकर कह, तीन के दो देता हो, तो दे जाए ।

दो मिनट बाद बिंदो ने आकर बताया कि वह मान गया और कितने के ले लेने हैं, पूछ रहा है।

फलवाला आसानी से सहमत हो गया तो चचा की नीयत में खोट आ गई। यानी तीन पैसे के दो ? क्या ख्याल है मँहगे नहीं इस भाव पर ?”

बिंदो बोला “अब तो उससे भाव का फैसला हो गया । “तो किसी अदालत का फैसला है कि इतने ही भाव पर के ले लिए जाएँ ? हम तो लेंगे; देता है तो दे, नहीं देता है न दे। वह अपने घर खुश, हम अपने घर खुश ।’

तीन आने दर्जन बिंदो असमंजस की दशा में खड़ा रहा। चचा बोले, “अब जाकर कह भी तो सही, मान जाएगा।” बिंदो जाने से कतरा रहा था। बोला, “आप खुद कह दीजिए। ” चचा ने जबाव में आँखें फाड़कर बिंदो को घूरा वह बेचारा डर गया, मगर वहीं खड़ा रहा। चचा को उसका असमंजस में पड़ना किसी हद तक उचित मालूम हुआ। उसे तर्क का रास्ता समझाने लगे, “तू जाकर यूँ कह मियाँ ने तीन आने दर्जन ही कहे थे, मैने आकर गलत भाव कह दिया। तीन आने दर्जन देने हो तो दे जा ।’

बिंदो दिल कड़ा करके चला गया। चचा जानते थे, भाव ठहराकर मुकर जाने पर केलेवाला शोर मचाएगा। बाहर निकलना युक्तिपूर्ण न मालूम होता था। दबे पाँव अंदर गए और कमरे की जो खिड़की ड्योदी में खुलती थी उसका पट जरा-सा खोलकर बाहर झाँकने लगे। फलवाला गरम हो रहा था, “आप ही ने तो भाव ठहराया और अब आप ही जबान से फिर गए। बहाना नौकर की भूल का जैसे हम समझ नहीं सकते । या बेईमानी, तेरा ही आसरा बिंदो गरीब चुप करके खड़ा था। फलवाला बकता-झकता, खाँचा उठा चलने लगा। बिंदो भी अंदर आने को मुड़ गया । वह दरवाजे तक पहुँचने न पाया था कि फलवाला रुक गया। खाँचा उतारकर बोला “कितने लेने हैं ?”

बिंदो अंदर आया तो चचा मोढ़े पर जैसे किसी विचार में तल्लीन हुक्का पी रहे थे। चौंककर बोले “मान गया? हम कहते थेन, मान जाएगा। हम तो इन लोगों की नस-नस से वाकिफ हैं तो के केले लेने मुनासिब होंगे?” चचा ने उँगलियों के पोरों पर गिन-गिनकर हिसाब लगाया हम आप छुट्टन की माँ, लल्लू, दद्दू बिन्नो और छुट्टन । गोया छह छह दूनी क्या हुआ ? खुदा तेरा भला करे, बारह यानी एक दर्जन । प्रत्येक आदमी को दो केले बहुत होंगे। फल से पेट तो भरा नहीं जाता। मुँह का स्वाद बदल जाता है। पर देखियो, दो-तीन गुच्छे अंदर लेकर आना, हम आप उसमें से अच्छे-अच्छे केले छाँट लेंगे।

फलवाले ने शिकायत की सदा लगाते हुए केलों के गुच्छे अंदर भेज दिए। चचा ने केलों को दबा दबाकर देखा, उनकी चितियों का अध्ययन किया और दर्जनभर अलग किए। केलेवाला बाकी केले लेकर बड़बड़ाता हुआ विदा हो गया। चचा ने बिंदो की ओर रुख किया”ले इन्हें खाने की इलिया में हिफाज़त से रख दे। रात के खाने पर लाकर रखना और जल्दी से आकर बरतन माँजने के लिए राख ला बड़ा समय नष्ट हो गया इस सौदे में। “

बिंदो केले अंदर रख आया और बावरचीखाने से राख लाकर बरतन माँजने लगा। “यूँ से। हाँ, ताकि बरतन पर रगड़ पड़े। इस तरह पीतल के बरतन साफ करने के लिए ज़रूरत इस बात की ज़रा ज़ोर होती है कि इमली के प्रयोग से पहले बरतनों को एक बार खूब अच्छी तरह मॉजकर साफ कर लिया जाए। ऐसे सब बरतनों की सफाई के लिए इमली निहायत लाजवाब नुस्खा है। गिरह में बाँध रख किसी रोज काम आएगा और पीतल ही का क्या जिक्र ? धातु के सभी सामान इमली से दमक उठते हैं। अभी-अभी तू आप देखियो कि इन काले काले बरतनों की सूरत क्या निकल आती है ? हाँ, और वह मैंने कहा केले एहतियात से रख दिए हैं ना…..यूँ बस मॅज गया। अब रगड़ उस पर इमली इस तरह देखा, मैल किस तरह कटता है, कैसी चमक आती जा रही है। यह इमली सचमुच बड़ी चीज है मगर बिंदो मेरे भाई, जरा उठियो तो उन केलों से जो दो हमारे हिस्से के हैं, हमें ला दीजियो। हम तो अभी ही खाए लेते हैं, बाकी लोग जब आएँगे, अपना-अपना हिस्सा खाते रहेंगे।”

बिंदो ने उठकर दो केले ला दिए। चचा ने मोढ़े पर उकडूं बैठे-बैठे पैंतरा बदला और केलों को थोड़ा थोड़ा छीलना और मजे से खाना शुरू किया। अच्छे हैं केले, बस यूँ ही जरा जोर से हाथ इस तरह छुट्टन की अम्माँ देखेंगी तो समझेंगी, आज ही नए बरतन खरीद लिए हैं और वह मैंने कहा, अब के केले बाकी रह गए हैं ?

दस ? हूँ । खूब चीज़ है न इमली ? एक टके के खर्चे में कायापलट हो जाती है। मगर बिंदो इन दस के लॉ का हिसाब बैठेगा किस तरह ? यानी हम शरीक न हो तब तो हर एक को दो-दो के ले मिल जाएँगे । लेकिन हमारे साझे के बिना शायद दूसरों का जी खाने को न चाहे । क्यों ? छुट्टन की अम्मी तो हमारे बगैर नज़र उठाकर भी न देखना चाहेंगी। तूने खुद देखा होगा, कई बार ऐसा हो चुका है और बच्चों में भी दूसरे हज़ार ऐब हॉ, पर इतनी खूबी जरूर है कि वे लालची और स्वार्थी नहीं हैं। सबने मिलकर शरीक होने के लिए हमसे अनुरोध शुरू किया तो बड़ी मुश्किल होगी बराबर-बराबर बाँटने के लिए के ले काटने ही पड़ेगे और कलकतिया के ले की बिसात भला क्या होती है ? काटने में सबकी मिट्टी पलीद होगी। मगर हम कहते हैं कि समझो प्रत्येक आदमी एक एक का हिसाब रख दिया जाए तो ? दो-दो न सही एक-एक ही हो, मगर खाएँ तो सब हँसी-खुशी से मिलजुलकर ठीक है ना ? गोया छह रख छोड़ने ज़रूरी हैं तो इस सूरत में कै के ले ज़रूरत से ज्यादा हुए ? चार ना ? हूँ, तो मेरे ख्याल से वे चारों ज्यादा के ले ले आना। बाकी के छह तो अपने ठीक हिसाब के मुताबिक बँट जाएँगे।”

बिंदो उठकर चार के ले ले आया। चचा ने इत्मीनान से उन्हें बारी-बारी खाना शुरू कर दिया। “हाँ, तो तू भी कायल हुआ न इमली की करामात का ? असंख्य लाभों की चीज़ है। मगर क्या कीजिए, इस जमाने में देश की चीजों की ओर कोई ध्यान नहीं देता। यही इमली अगर विलायत से डिब्बों में बंद होकर आती तो जनाब लोग इस पर टूट पड़ते। हर घर में इसका एक डिब्बा मौजूद रहता।”

“तो अब छह ही बाकी रह गए हैं ना? कुछ नहीं, बस ठीक है। सबके हिस्से में एक-एक आ जाएगा। हमें हमारे हिस्से का मिल जाएगा, दूसरों को अपने-अपने हिस्से का काट-छाँट का तो झगड़ा ख़तम हुआ। अपने-अपने हिस्से का केला ले और जो जी चाहे करें जी चाहे आज खाएँ, आज जी न चाहे कल खाएँ और क्या होना भी यूँ ही चाहिए। इच्छा के बिना कोई चीज़ खाई जाए तो शरीर का अंश नहीं बनने पाती, यानी अकारथ चली जाती है। कोई चीज़ आदमी खाए उसी वक्त जब उसके खाने को जी चाहे छुट्टन की अम्माँ की हमेशा यही कैफियत है जी चाहे तो चीज खाती हैं, न चाहे तो कभी हाथ नहीं लगाती। हमारा अपना भी यही हाल है। ये फुटकर चीजें खाने को कभी कभार ही जी चाहता है होना भी ऐसा ही चाहिए। अब ये ही केले हैं, बीसियों मर्तबा दुकानों पर रखे देखे, कभी रुचि न हुई। आज जी चाहा तो खाने बैठ गए। अब फिर न जाने कब जी चाहे हमारी तो कुछ ऐसी ही तबीयत है न जाने शाम को जब तक सब आएँ रुचि रहे या न रहे। निश्चय से क्या कहा जा सकता है ? दिल ही तो है मुमकिन है उस वक्त केले के नाम से मन में घृणा हो तो ऐसी सूरत में क्या किया जाए? हम तो बाकी छह केलों में से अपने हिस्से का एक केला अभी खा लेते हैं क्यों? और क्या ? अपनी-अपनी तबीयत, अपनी-अपनी भूख जब जिसका जी चाहे, खाए । उसमें तकल्लुफ क्या? तकल्लुफ में तकलीफ ही तकलीफ है। ऐसे मामलों में तो बेतकल्लुफी ही अच्छी है। ” “तो ज़रा उठियो मेरे भाई बस, मेरे ही हिस्से का केला लाना। बाकी के सब वहीं अच्छी तरह रखे रहें।” बिंदो ने आज्ञा का पुनः पालन किया। चचा केला छीलकर खाने लगे।

“देख, क्या सूरत निकल आई बरतनों की ? सुभान अल्लाह। यह इमली का नुस्खा मिला ही ऐसा है। अब इन्हें देखकर कोई कह सकता है कि पुराने बरतन हैं। बस, यह इमली की बात आगे न निकलने पाए। बच्चों से भी ज़िक्र न कीजियो, वरना निकल जाएगी बात । कब तक आएँगे बच्चे ? लल्लू का मैच तो शायद शाम से पहले खतम न हो उसके खाने-पीने का इंतजाम टीमवालों ने कर दिया होगा। वरना, खाली पेट  क्रिकेट किससे खेला जाता है ? कोई इंतजाम न होता तो वहीं खाना मंगवा सकता था। खूब तर माल उड़ाया होगा आज मेवे मिठाई से ठसाठस पेट भर लिया होगा चलो, क्या हर्ज है, यह उमर खाने-पीने की है और फिर घर के दूसरे लोग बढ़िया-बढ़िया चीजें खाएँ तो वह बेचारा क्यों पीछे रहे ? दद्दू और छुट्टन तो टिकट के दाम के साथ खाने-पीने के लिए भी पैसे लेकर गए हैं और क्या ? वहीं किसी दुकान पर मेवा-मिठाई उड़ा रहे होगे । खुदा खैर करे, गरिष्ठ चीजें खा-खाकर कहीं बदहज़मी न कर जाए। साथ में कोई रोक-टोक करनेवाला नहीं है । तकलीफ होती है बिन्नो तो माँ के साथ है । वह ख्याल रखेगी कि कहीं ज्यादा न खा जाए । मगर मैं कहता हूँ कि केले हमने आज बड़े बेमौके लिए। उस वक्त ख्याल ही नहीं आया की आज तो वे सब बड़ी-बड़ी नियामतें उड़ा रहे होगे । के लों को कौन पूछने लगा ? और तूने भी याद न दिलाया, वरना क्यों लेते इतने बहुत-से केले? बेकार नष्ट हो जाएँगे । पर अब खरीद जो लिए । किसी-न किसी तरह ठिकाने तो लगाने ही पड़ेंगे फें के तो नहीं जा सकते । फिर ले आ यहीं । मज़बूरी में मैं ही खतम कर लूँ |”

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