काव्य लक्षण करते समय कहा गया है कि उसमें निम्नलिखित विशेषताएँ होनी चाहिए –
- काव्य लक्षण में अति-व्याप्ति या अव्याप्ति का दोष नहीं होना चाहिए।
- लक्षण सूत्रबद्ध होना चाहिए। अर्थात सारगर्भित, संक्षिप्त तथा अर्थवान होना चाहिए। संक्षिप्त होने से उसे याद रखने में सुविधा रहती है।
- लक्षण में कोई पारिभाषिक शब्द नहीं होना चाहिए। जैसे पारिभाषिक शब्द है – ‘रस’। रस के स्वरूप को समझना शास्त्र से अपरिचित व्यक्ति के लिए असंभव है। इसलिए काव्य लक्षण में रस, वक्रोक्ति, अलकार जैसे पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग होगा तो वे कठिनाई उत्पन्न करेंगे।
- कथन का अति-विस्तार नहीं होना चाहिए। कथन का अति-विस्तार अंतर्विरोधों को जन्म देता है। उससे बचना चाहिए।
- लक्षण तार्किक, स्पष्ट और सहज बोधगम्य होना चाहिए। जटिलता, अस्पष्टता, दुरूहता से बचना चाहिए ताकि लक्षण सर्वग्राह्य हो सके।
- घोर दार्शनिक प्रत्ययों को लक्षण में स्थान नहीं मिलना चाहिए क्योंकि ‘ब्रह्म’, ‘माया’ आदि दार्शनिक अवधारणाएँ पूर्व-मीमांसा और उत्तर-मीमांसा में गहन-सूक्ष्म विवाद का मुद्दा होती है। सामान्य व्यक्ति उनसे अनभिज्ञ होता है।
संस्कृत आचार्यों द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
भामह द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
अलंकारवादी भामह का काव्य लक्षण इस प्रकार है –
‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’
(काव्यालंकार 1/18)
अर्थात शब्द और अर्थ दोनों का सहभाव काव्य है।
भामह ने अपने ग्रंथ ‘काव्यालकार’ में अपने से पहले की दो विचारधाराओं का उल्लेख किया है। एक विचारधारा अर्थालंकारों को काव्य-सौंदर्य का मूलाधार मानती है तथा दूसरी शब्दालंकारों को। कितु दोनों विचारधाराएँ काव्य-सौंदर्य का आधार अलंकारों में ही खोजती हैं।
अर्थालंकारवादियों का मत था कि रूपक-उपमा आदि अर्थालंकार ही काव्य-शोभा की सृष्टि करते हैं क्योंकि अर्थ-बोध के पश्चात् उन्हीं से काव्य-सौंदर्य की प्राप्ति होती है। भामह का आग्रह भी यही था कि काव्य-कृति में रसों-गुणों का कितना ही बढ़िया सामंजस्य क्यों न हो यदि समर्थ अलंकार-योजना नहीं है तो वह उसी प्रकार श्रीविहीन है जैसे अलंकारविहीन स्त्री (वनिता) का मुख।
शब्दालंकारवादी कहते थे कि रूपक-उपमा आदि अर्थालंकार बाह्य प्रतीत होते है, काव्य में चमत्कार की सृष्टि तो शब्द-सौंदर्य के द्वारा ही की जा सकती है। शब्द-सौंदर्य से रहित अर्थ-सौंदर्य अधूरा रहता है। काव्य के पठन-पाठन, श्रवण-प्रेक्षण में सर्वप्रथम’शब्द’ ही हमारे हृदय पर अपना प्रभाव छोड़ता है। शब्द-ग्रहण की इस क्रिया के बाद ही अर्थ ग्रहण या अर्थ-प्रतीति होती है। अर्थात् शब्दालंकारों के सामने अर्थालंकारों की सत्ता गौण है।
भामह को इन दोनों मतों का समन्वय करना ही उचित प्रतीत हुआ। कवि के लिए शब्द का भी महत्व है और अर्थ का भी। अतः उन्होंने काव्य लक्षण में शब्दार्थी सहितौ’ में’सहिती’ पर विशेष बल दिया। विशेष बात यह भी है कि भामह ने इस विवाद को और गहराया कि काव्यत्व शब्द में होता है या अर्थ में या दोनों के सहभाव में। इस विवाद ने इतना प्रबल रूप धारण किया कि आगे चलकर पण्डितराज जगन्नाथ को कहना पड़ा कि – रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द ही काव्य हैं।
दण्डी द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
आचार्य दण्डी ने काव्य के शरीर पर विचार करते हुए कहा कि ‘शरीरतावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्ना पदावली’ ही काव्य है।
उनका मत है कि केवल उसी शब्द-समूह (पदावली) को काव्य-शरीर कहा जा सकता है जो काव्य के लिए अभिलक्षित सरसता से युक्त हो और कवि-प्रतिभा से युक्त सुंदर पदावली से व्यवच्छिन्न हो। इष्टार्थ-युक्त पदावली का अर्थ यह भी है कि ऐसे पदों में ‘योग्यता’, ‘आकांक्षा’, ‘आसक्ति’ आदि विशेषताएँ भी विद्यमान हों।
दण्डी शास्त्रज्ञ ही नहीं हैं, कवि भी हैं। इसलिए रस-चेतना पर उनका ध्यान केंद्रित है – यथा, ‘अलंकृतमसंक्षिप्त रसभाव निरंतरम्’। किंतु यहाँ ‘रस’ शब्द रस-जन्य भावात्मक आनद के लिए न होकर अलंकार-जन्य चमत्कार से उत्पन्न आनंद के लिए ही आया है। दण्डी ने समस्त अलंकारों का उद्देश्य रस-सृष्टि ही माना है। फलतः उनकी काव्यानंद संबंधी मान्यता रसवादियों की मान्यताओ से भिन्न है। वे मुक्त भाव से शब्दालंकास्अर्थालंकार के साथ रसवद् आदि अलंकार को सम्मिलित करते हैं। दण्डी ने काव्य लक्षण में प्रयुक्त ‘इष्टार्थ’ की स्पष्ट व्याख्या नहीं की।
दण्डी के अनुसार शब्द-अर्थ-रस-सौंदर्य से विशिष्ट पदावली ही काव्य है।
वामन द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
वामन को भामह की ‘शब्दार्थो सहितौ काव्यम्’ वाली मान्यता पर कोई आपत्ति नहीं है। महत्वपूर्ण बात यह है कि वामन स्वयं प्रश्नाकुल भाव से पूछते हैं कि क्या सामान्य शब्द और अर्थ, काव्य है?
भामह मानते थे – शब्दालंकार और अर्थालंकार से विशिष्ट शब्दार्थ काव्य है। केवल शब्द और अर्थ को काव्य मानना तो प्रचलन है – ‘काव्यशब्दोऽयं गुणालंकारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वति। शब्दार्थमात्र वचनोऽत्र गृह्यते।’ (काव्यलंकार-सूत्र-वृत्तिः) ।
वामन के अनुसार, काव्य अलंकार तत्व के कारण ही ग्राह्य है -‘काव्य ग्राह्यमलंकारत्।’ इतना ही नहीं, वे यह भी कह बैठे थे कि काव्य के शोभा कारण-धर्म को अलंकार कहते हैं। ‘सौंदर्यमलंकारः’, ‘अलंकृतिरलंकारः’, ‘काव्य शोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः।’ इस प्रकार वामन ने काव्य की ग्राह्यता को ‘सौंदर्य’ से निबद्ध कर दिया।
वामन के अनुसार दोष-रहित, सगुण, सालंकार शब्दार्थ काव्य है। वास्तव में वामन न तो काव्य का शास्त्रीय लक्षण ही कर पाए न अलंकारवादियों की कतार में बैठ सके। वामन का गुण-संबंधी दृष्टिकोण भी रसवादियों के गुण संबंधी विवेचन से मेल नहीं खाता। उन्होंने दण्डी के मार्ग को रीति’ में नए ढंग से विस्तार दिया तथा अलंकार से आगे गुण की चर्चा करते विचार को आगे बढाया।
आचार्य रुद्रट द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
‘शब्दार्थों काव्यम्’ काव्य के लक्षण का विस्तार और विवाद अलंकारवादी आचार्य रुद्रट ने काव्य का लक्षण किया – ‘ननु शब्दार्थो काव्यम्’ और अपने लक्षण से भामह के ‘सहितौ’ को निकाल दिया।
काव्य-चिंतन की पूर्व परम्परा को देखने पर ऐसा लगता है कि रुद्रट के समय तक यह विवाद प्रबल हो गया था कि काव्य शब्द में रहता है या अर्थ में या दोनों में। इस विवाद पर ही निर्णयात्मक स्वर में रुद्रट को कहना पड़ा कि शब्दार्थ निश्चय ही काव्य है।
अदोषौ सगुण सालंकारौ च शब्दार्थों काव्यम् (काव्यानुशासन)
-हेमचन्द्र
गुणालंकार सहितौ शब्दौ दोष वर्जितौ। (प्रताप रुद्रयशोभूषण)
-विद्यानाथ
शब्दार्थी निर्दोषौ सगुणी प्रायः सालंकारौकाव्यम् (काव्यानुशासन)
वाग्भट्ट
निर्दोषा लक्षणावती सरीतिर्गुणभूषणा। सालंकार रसानेकवृत्तिक्किाव्यनाम भाक।। (चन्द्रालोक)
जयदेव
निर्दोषं गुणवत्काव्यमलंकारैरलंकृतम्। रसाविन्त कविं कुर्वन प्रीति कीर्ति च विदंति।। (सरस्वती कंठाभरण)
भोज
इन काव्य लक्षणों से स्पष्ट है कि ये सभी आचार्य भामह और मम्मट के काव्य लक्षण की ही थोड़े बहुत फेर से पुनरावृत्ति करते रहे।
इनमें न मौलिकता थी न काव्य को ठीक से समझने की शक्ति।
बाद में अग्निपुराणकार ने कहा कि ध्वनि, वर्ण, पद और वाक्य का ही नाम वाङ्मय है जिसके अंतर्गत शास्त्र, इतिहास तथा काव्य का समावेश रहता है। शास्त्र और काव्य में शब्द की प्रधानता होती है, इतिहास में इतिवृत्तात्मकता की। काव्य में अभिधा का प्राधान्य रहता है जिसके कारण वह इतिहास और शास्त्र से भिन्न हो जाता है, फिर ‘कवित्व’ तो प्रतिभाशाली के लिए भी दुर्लभ है।
काव्य लक्षण देते हुए उन्होंने कहा कि ‘जिस वाक्य समूह में अलंकार स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हों तथा जो गुणों से युक्त और दोषों से मुक्त हो उसे काव्य कहते हैं।
इन आचार्यों ने यह सोचने तक का प्रयास नहीं किया महान प्रतिभा दोष मुक्त नहीं हो सकती।
आनंदवर्धन द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
अलंकार-युग के आचार्य काव्य लक्षण के संबंध में विचार करते हुए काव्य के शरीर पक्ष या बाह्य-सौंदर्य को ही प्रधानता देते रहे। वे रस-रीति-गुण को भी अलंकार-सौंदर्य से ही समझाते रहे। आचार्य आनन्दवर्धन ने इस परम्परा से विद्रोह किया। आनंदवर्धन का ‘ध्वन्यालोक’ इसी विचार-क्रान्ति का दस्तावेज़ है। आचार्य आनन्दवर्धन ने काव्य की आत्मा ध्वनि को मानते हुए अलंकार और अलंकार्य की पृथकता घोषित की। उन्होंने रस तथा सहदय की काव्यानुभूति को पर्याप्त महत्व दिया तथा नए ढंग की काव्य लक्षण परम्परा की शुरुआत की।
कुन्तक द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
अपनी मौलिक प्रतिभा के बल पर आचार्य कुन्तक ने आनन्दवर्धन तथा अभिनवगुप्त के काव्य-दर्शन की वस्तुवादी व्याख्या की। उन्होंने ‘वक्रोक्ति’ को काव्य का व्यापक गुण मानते हुए उसे काव्य की आत्मा कहा। कवि-कर्म सामान्य आदमी के मार्ग से भिन्न है, कवि की वक्र शब्दावली में कल्पना के लिए पर्याप्त अवकाश रहता है। वक्रता को ‘वैचित्र्य’ तथा ‘वेदाध्य भंगी भणिति’ अर्थात् विदग्ध व्यक्ति के कहने का विशेष गुण कहा। काव्य के भाव-पक्ष की कला-पक्षीय व्याख्या करते हुए उन्होंने काव्य का लक्षण इस प्रकार प्रस्तुत किया –
शब्दार्थी सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनि।
(वक्रोक्तिजीवितम)
बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणी।।
यहाँ’वक्रोक्ति’ से तात्पर्य है
– विशिष्ट अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिए भाषा के भण्डार में अनेक शब्द होते है किंतु कवि उसी शब्द का प्रयोग करता है जो उस अर्थ को व्यक्त करने में सर्वाधिक समर्थ हो।’ काव्यार्थ सहृदय आह्लादकारी, स्वस्पंद तथा रमणीय होता है। अर्थ तथा विवक्षित (ध्वनित) अर्थवाचक’ शब्द दोनों ही काव्य के अलंकार्य हैं – अलंकार नहीं। अलंकार काव्य-शोभा के बाह्य उपकरण होते हैं जो शब्द और अर्थ दोनों को अलंकृत कर सकते हैं। इस प्रकार की रचना में अद्भुत सौंदर्य अभिव्यंजित होता है। वक्रोक्ति का एक आंतरिक पक्ष है – वर्ण्य-विषय में नवदीप्ति उत्पन्न करने वाला और एक बाह्य सौंदर्य पक्ष-गुण अलंकार आदि का। वक्रता विचित्र गुणालकार सम्पदा’ का अभिप्राय अद्भुत कला दक्षता से ही है। कुन्तक ने वक्रोक्ति के भेदों में वर्ण्य का अंतर्भाव कर लिया किंतु बल अभिव्यंजना के कौशल पर दिया। इस प्रकार, कुन्तक ने काव्य के वर्ण्य-पक्ष पर
कम बल दिया और अभिव्यंजना-पक्ष पर विशेष बल।
मम्मट द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
मम्मट ने ‘दोषरहित, गुणसहित और कभी-कभार अनलंकृत, शब्द और अर्थमयी रचना को काव्य’ कहा है –
तदोषऔ शब्दार्थी सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि ।
(काव्य-प्रकाश)
इसमें दोषों के अभाव और गुणों के भाव को प्रधानता प्रदान की गई है और अलंकारों को नितांत आवश्यक नहीं माना है। आचार्य विश्वनाथ ने मम्मट की इस काव्य-परिभाषा की आलोचना करते हुए कहा है कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कविताओं में भी कभी-कभार दोष निकल ही आता है और दोष निकल आने पर भी हम उसे कविता की श्रेणी से खारिज नहीं कर देते। अतः’अदोषी’ एक नकारात्मक लक्षण है। दूसरी बात यह कि यदि
अलंकार कविता के लिए आवश्यक नहीं है जो उनकी चर्चा का ही कोई औचित्य नहीं है। इस परिभाषा में न रस का संकेत है न ध्वनि न वक्रोक्ति का – केवल ‘गुण’ का संकेत है।
प्रश्न उठता है कि मम्मट का यह काव्य लक्षण इतना प्रसिद्ध क्यों रहा? अपनी सरलता के कारण यह लोकप्रिय हुआ। वास्तविकता यह है कि इसमें मौलिकता कम, समझौते की प्रवृत्ति अधिक दिखाई पड़ती है। मम्मट अलंकारवादियों को भी खुश करना चाहते हैं और गुणवादियों को भी। इस प्रकार मम्मट ने रस और ध्वनिवादियों का विरोध भी नहीं किया तथा रसवाद का समर्थन करते रहे हैं।
विश्वनाथ द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
साहित्य-दर्पणकार विश्वनाथ रसवादी आचार्य हैं। उन्होंने अपने पक्ष को सामने रखते हुए काव्य का
लक्षण किया है –
वाक्यं रसात्मकं काव्यम्।
(साहित्य-दर्पण, परिच्छेद-1)
अर्थात् रसयुक्त वाक्य काव्य है। विश्वनाथ ने भामह के ‘शब्दार्थी सहितौ काव्य के स्थान पर ‘वाक्यं रसात्मकं काव्य’ पद का प्रयोग किया है। वाक्य’ में काव्य शरीर तथा ‘रसात्मक’ में काव्य की आत्मा दोनों का समाहार है। यों तो अभिनवगुप्त ने भी रस को ही काव्य की आत्मा माना है
– किन्तु भारतीय काव्यशास्त्र की परवर्ती परम्परा में विश्वनाथ को ही रसवाद का प्रतिनिधि समझा जाने लगा।
राजशेखर ने काव्य के लिए कहा है –
‘गुणयदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्’
(काव्य-मीमांसा)
अर्थात् गुणों और अलंकारों से युक्त वाक्य का नाम काव्य है । राजशेखर मानते थे कि अतिशयोक्तिपूर्ण होने से न तो कोई काव्य त्याज्य होता है न असत्य।
पंडितराज जगन्नाथ द्वारा दिए गए काव्य लक्षण
रसगंगाधरकार पंडितराज जगन्नाथ (17वीं शताब्दी) ने काव्य लक्षण निरूपण इस प्रकार किया –
‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्।’
(रसगंगाधर, पृ4-5)
सामान्य लक्षण के अनुसार रमणीय अर्थ का प्रतिपादक शब्द ही काव्य है। उनकी ‘रमणीयता’ की अर्थ-सीमा बहुत खुला क्षेत्र देती है – सभी ललित कलाओं का सौंदर्य इसमें आ जाता है। चित्र, मूर्ति, वास्तु, काव्य कलाएँ रमणीय अर्थ देती हैं और संगीत रमणीयता। अभिनवगुप्त के मत से रमणीयता चाहे रमणीय अर्थ के प्रतिपादक शब्द पर आधारित न हो पर उसमें भी सौदर्शनुभूति की अर्थ लय रहती है। कहा जा सकता है कि आज भी पंडितराज का काव्य लक्षण नकारने की चीज़ नहीं है , नए युग संदर्भो में विचार करने की चीज़ है।
पाश्चात्य काव्यशास्त्र में काव्य लक्षण
प्लेटो का मत
पाश्चात्य काव्यशास्त्र का आरभ प्लेटो (127 ई. पूर्व-347 ई.पूर्व) से होता है। काव्य पर विचार करते हुए प्लेटो ने कहा कि काव्य प्रकृति का अनुकरण है और प्रकृति सत्य का अनुकरण। अनुकरण का अनुकरण होने के कारण वह सत्य से दूर हो जाता है।
अरस्तू का मत
प्लेटो के शिष्य अरस्तू ने अपने गुरु के इस विचार का प्रबल तर्को से खण्डन किया। अरस्तू ने भी काव्य की परिभाषा नहीं की। लेकिन काव्य-विवेचन के दौरान ऐसे विचार व्यक्त किए हैं कि उनके आधार पर काव्य लक्षण का निर्माण किया जा सकता है जैसे
(1) काव्य एक कला है, ‘चित्रकार अथवा किसी भी अन्य कलाकार की ही तरह कवि अनुकर्ता है।’ (अरस्तू का काव्यशारत्र. पृ.4) ‘महाकाव्य, त्रासदी, कामदी और रौद्र स्तोत्र तथा वंशी-वीणा संगीत के अधिकांश भेद अपने सामान्य रूप में अनुकरण के ही प्रकार हैं।’, ‘कुछ कलाएँ ऐसी जो उपर्युक्त सभी साधनों का उपयोग करती हैं – लय. राग और छंद सभी का। रौद्र स्तोत्र, राग-प्रधान काव्य, त्रासदी और कामदी इन्हीं के अंतर्गत है।’
(2)अरस्तू का ‘अनुकरण’ से तात्पर्य ‘नकल’ न होकर ‘पुनर्सजन’ है। काव्य प्रकृति का अनुकरण है और अनुकरण सर्जनात्मक प्रेरणा का पर्याय है।
अतः कहा जा सकता है – अरस्तू के अनुसार काव्य लक्षण बन जाता है ‘काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है।’
लांजाइनस का मत
लांजाइनस का नाम यूनानी काव्यशास्त्र में अरस्तू के बाद आदर के साथ लिया जाता है। उनकी कृति ‘पोरिइप्सुस’ (‘काव्य में उदात्त तत्व’) में कला के आधारभूत सिद्धांतों का विवेचन है। लेकिन वे भी अरस्तू की ही भाँति ‘काव्य’ और ‘प्रकृति’ के अंतःसंबंध पर विचार करते हैं। काव्य का प्राण-तत्व है – उदात्त तत्व। काव्य की अंतर्वस्तु और अभिव्यंजना दोनों में उसकी सही व्याप्ति से ही रचना महान या उत्कृष्ट बनती है। लांजाइनस ने काव्य लक्षण देने का प्रयत्न नहीं किया लेकिन काव्य लक्षण के सूत्र दिए हैं –
(1) औदात्य अभिव्यंजना के वैशिष्ट्य और उत्कर्ष का नाम है और यही एकमात्र ऐसा आधार है जिसके अवलम्ब से महानतम कवियों एवं लेखकों ने गौरव-लाभ किया है।
(2) उदात्त भाषा का प्रभाव श्रोता के मन पर प्रत्यक्ष रूप में नहीं पड़ता वरन् भावों के रूप में पड़ता है।
(3) उदात्त एक या दो तत्वों की सिद्धि नहीं है वरन् रचना के समूचे ताने-बाने पर आधृत दुःसाध्य उपलब्धि है।
(4) प्रकृति ही सृजन-शक्ति का मूल है। कला इस प्रकृति के सौंदर्य का ही रूप है।
(5) प्रकृति अव्यवस्था में व्यवस्था स्थापित करने के लिए सजग और सक्रिय रहती है।
(6) उदात्त के पाँच उद्गम स्रोत हैं। उदात्त निसर्गजात प्रतिभा है, उत्पाद्य नहीं।
(7) अपने पूर्ववर्ती महान कवियों और लेखकों का अनुकरण तथा उनसे स्पर्धा।
अपने इन मंतव्यों से लांजाइनस, प्लेटो और अरस्तू के निकट पहुँच जाते हैं। उनका काव्य लक्षण बनता है – उदात्त काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है।
ड्राइडन का मत
ड्राइडन ने काव्य लक्षण किया – ‘काव्य भावपूर्ण तथा छंदोबद्ध भाषा में प्रकृति का अनुकरण है ।
मैथ्यू आनल्ड का मत
और मैथ्यू आनल्ड ने कहा ‘काव्य सत्य और काव्य-सौंदर्य के सिद्धांतों द्वारा निर्धारित उपबंधों के अधीन जीवन की आलोचना का नाम काव्य है।’
आर्नल्ड का यह लक्षण अरस्तू की धमक लिए हुए है – आर्नल्ड का ‘जीवन’ अरस्तू के ‘प्रकृति’ का पर्याय है और ‘क्रिटिसिज़्म’ ‘समीक्षा या आलोचना भी अरस्तू के ‘अनुकरण’ की अर्थछाया लिए हुए है।
स्वच्छंदतावादी कवि-आलोचकों ने अरस्तू, ड्राइडन और मैथ्यू आर्नल्ड से विपरीत दिशा में जाकर काव्य लक्षण प्रस्तुत किए हैं। इनकी मूल दृष्टि एकदम व्यक्तिपरक है।
उदाहरण के लिए, वर्डसवर्थ और कॉलरिज के काव्य लक्षण, शैली और ली हंट के काव्य लक्षण लिए जा सकते हैं।
विलियम वर्डसवर्थ का मत
विलियम वर्डसवर्थ (1770-1850) ने कविता से संबंधित पूर्ववर्ती सिद्धात वाक्यों को अस्वीकार करते हुए कहा – ‘कविता बलवती भावनाओं का सहज उछलन होती है। शांत अवस्था में भाव के स्मरण से उसका उद्भव होता है।’ फिर कवि की संवेदनशीलता और सौंदर्य ग्रहण क्षमता साधारण मनुष्यों की अपेक्षा अधिक होती है। मानव और मानवेतर प्रकृति का उसे अधिक ज्ञान होता है – उसकी कल्पना शक्ति में अप्रत्यक्ष को भी प्रत्यक्ष और मूर्त करने की क्षमता होती है। वर्डसवर्थ की काव्य-परिभाषा — ‘कविता बलवती भावनाओं का सहज उछलन है’ — स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का सहज प्रतिफलन है।
(Poetry is the spontaneous overflow of powerful feelings. It takes its origin from emotions recollected in tranquillity.)
विद्वानों का विचार है कि वर्डसवर्थ की इस परिभाषा में अव्याप्ति का दोष है, यह काव्य की परिभाषा न होकर काव्य के एक भेद (प्रगीत-काव्य) तक सीमित परिभाषा है जिसके भीतर प्रबंध काव्य समाहित नहीं हो पाता।
कॉलरिज का मत
सैमुअल टेलर कॉलरिज ने जैव-सिद्धांत को काव्य संबंधी अपनी धारणा में स्थान दिया। कॉलरिज के अनुसार कविता की परिभाषा – ‘कविता रचना का वह प्रकार है जो वैज्ञानिक कृतियों से इस अर्थ में भिन्न है कि उसका तात्कालिक प्रयोजन आनंद है, सत्य नहीं। और रचना के सभी प्रकारों से उसका अंतर यह है कि संपूर्ण से वही आनंद प्राप्त होना चाहिए जो उसके प्रत्येक घटक खंड (अवयव) से प्राप्त होने वाली स्पष्ट संतुष्टि के अनुरूप हो।’
(A poem is that species of composition, which is opposed to works of science, by proposing for it’s immediate object pleasure.)
कविता की इस परिभाषा में काव्य का मूल प्रयोजन आनंद कहा गया है – सत्य नहीं।
सत्य का समर्थन करने वाली परंपरा का खण्डन करते हुए कॉलरिज आनंद को काव्य का चरम प्रयोजन मानते हैं। कॉलरिज के यही विचार आई.ए.रिचर्डस को ‘कलात्मक परितोष’ की ओर ले गए। कॉलरिज ने प्रतिभा तथा कल्पना को अभेद माना।
शैली का मत
शैली ने कहा ‘सामान्यतः कविता को कल्पना की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। शैली से एक कदम और आगे बढ़कर ली हंट ने कहा – ‘कल्पनात्मक आवेग का नाम कविता है।’ स्वच्छंदतावादी कवि-आलोचकों ने ‘कल्पना की महिमा स्थापित करते हुए काव्य को आत्माभिव्यक्ति माना।
नतीजा यह हुआ कि इन सभी ने काव्य में वस्तु-तत्व की अपेक्षा भाव-तत्व को प्रधानता दी।
पश्चिम में ‘उत्तमात्तम शब्दों का उत्तमोत्तम क्रम-विधान कविता’ मानने वालों की भी एक परंपरा रही है लेकिन वहाँ भारतीय काव्यशास्त्र के प्रतिनिधि लक्षणकारों की तरह काव्य को ‘शब्दार्थ रूप नहीं माना गया।
आई.ए.रिचर्डस का मत
आई.ए.रिचर्डस ने माना कि काव्य अनुभूति है, जीवनानुभूति है। ‘प्रिंसिपल्स ऑफ लिटरेरी क्रिटिसिज़म’ मैं रिचर्डस ने कविता की परिभाषा पर विचार किया है। रिचर्डस केवल अनुभूति को कविता मानते हैं।
टी.एस. एलियट का मत
टी.एस. एलियट ने काव्य-चिंतन में ‘एण्टी-रोमाण्टिक’ रवैया अपनाते हुए घोषित तौर पर कहा कि रचनाकार जितना ही उत्कृष्ट होगा, उसमें भोक्ता और स्रष्टा का अंतर उतना ही स्पष्ट होगा। एलियट ने कहा – ‘कविता या कला, कवि के व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं है क्योंकि उसे व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति करनी ही नहीं है – वह तो अभिव्यक्ति का एक माध्यम मात्र है जो केवल माध्यम है, व्यक्तित्व नहीं।’
(The poet has not a personality to express, but a particular medium, which is only a medium and not a personality.)
‘काव्य भाव का स्वच्छंद प्रवाह नहीं, भाव से मुक्ति या पलायन है। वह व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व से मुक्ति है।’
(Poetry is not a turning loose of emotion but an escape from emotion; it is not the expression of personality, but an escape from personality. – Selected Work, T.S. Eliot, p.58)
निष्कर्ष:-
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य लक्षण
पश्चिम में ‘कविता क्या है?’ पर निरंतर वाद-विवाद होता रहा है। मनोविश्लेषणवादी और मार्क्सवादी ‘कला कला के लिए’ और ‘कला जीवन के लिए’, दो ग्रुपों-गुटों में बँटे रहे हैं। ‘नयी समीक्षा (न्यू क्रिटिसिज़म) स्कूल के विद्वानों ने काव्य लक्षण पर बहस करने के बाद अपना निष्कर्ष दिया है कि ‘कविता एक शाब्दिक निर्मित है।’ अर्थात् कविता शब्द है और अंत में भी यही बात बचती है कि कविता शब्द है।
भारतीय काव्यशास्त्र में काव्य लक्षण पर विचार करने वाले आचार्यों ने काव्य को ‘शब्दार्थ-रूप’ माना है। अतः काव्य लक्षण का पूरा रूप है – काव्य अर्थ का रमणीय शाब्दिक प्रतिपादन है।
हिंदी साहित्य के आदिकाल तथा भक्तिकाल में सृजन-परम्परा तो समृद्ध और सम्पन्न रही, पर काव्यशास्त्र पर अलग से विचार नहीं किया गया। तुलसीदास के ‘मानस’ में कथन के ‘सहज कवित कीरत विमल सोइ आदरहि सुजान’ में काव्य लक्षण का संकेत तो है पर विधिवत काव्य लक्षण नहीं मिलता।
रीतिकालीन कवि-आचार्य सामान्यतः संस्कृत काव्यशास्त्र के काव्य लक्षणों की नकल ही करते रहे। उदाहरण के तौर पर आचार्य चिन्तामणि के ‘कविकुल कल्पतरू’ तथा ‘शृंगार मंजरी’ में मम्मट और विश्वनाथ का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है – ‘बत कहाउ रस में जु है कवित कहावै सोई’ में विश्वनाथ के वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ की परिभाषा की सीधी अनुगूंज है।
रीतिवाद का विरोध करते हुए आधुनिक युग में आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने शब्द और अर्थ का संदर्भ व्यापक सामाजिकता से जोड़ दिया। भारतीय और पश्चिमी काव्य-चेतना पर ध्यान देते हुए उन्होंने पश्चिमी कवि-आलोचक बर्डसवर्थ की भाँति कविता के लिए बोलचाल की भाषा का प्रतिमान अपनाने की वकालत की। मिल्टन की ओर झुकते हुए कहा, ‘कविता को सादा, प्रत्यक्षामूलक और रागयुक्त होना चाहिए।’ यहाँ ‘सादा’ से तात्पर्य है – झूठे चमत्कारवाद से मुक्ति।
रसज्ञ रंजन’ पुस्तक के लेख ‘कवि और कविता’ में उन्होंने लिखा -‘सादगी, असलियत और जोश (मिल्टन के बताए हुए तीनों गुण) यदि ये तीनों गुण कविता में हों तो कहना ही क्या है…अतएव कवि को असलियत का सबसे अधिक ध्यान भारतेदु युग और द्विवेदी युग की नवजागरणकालीन मानसिकता का सबसे प्रबल विस्फोट आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध ‘कावेता क्या है’ में हुआ।
आचार्य शुक्ल ‘कविता क्या है’ निबंध को जीवन भर लिखते-परिष्कृत करते रहे। कविता के संबंध में उनका संशोषित-सम्पादित मत इस प्रकार है –
‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्तावस्था के लिए मनुष्य की वाणी जो शद्ध-विधान करती आई है उसे कविता कहते हैं। इस साधना को हम भावायोग कहते हैं और कर्मयोग और ज्ञानयोग का समकक्ष मानते हैं।’
(चिन्तामणि, भाग-1, पृ.192)
सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला’ ने स्वच्छंदतावादियों के ढंग पर काव्य की परिभाषा दी कि कविता विमल हृदय का उच्छवास है -‘तुम विमलं हृदय उच्छवास और मैं कान्तकामिनी कविता। ‘काव्य-अभिव्यक्ति है’ यह धारणा प्रसाद पन्त और महादेवी भी व्यक्त करते रहे हैं।
छायावाद को सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा के मूल से जोड़कर जयशंकर ‘प्रसाद’ ने काव्य को आत्मा की ‘संकल्पनात्मक अनुभूति’ कहा है। प्रसाद जी की प्रसिद्ध काव्य-परिभाषा है –
‘काव्य आत्मा की संकल्पनात्मक अनुभूति है जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। वह एक श्रेयमयी प्रेय रचनात्मक ज्ञान धारा है….आत्मा की मनन शक्ति की असाधारण अवस्था, जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारूत्व में सहसा ग्रहण कर लेती है, काव्य में संकल्पनात्मक मूल अनुभूति कही जा सकती है।’
(काव्य और कला तथा अन्य निबंध, पृ. 38)
इस परिभाषा में सौंदर्य एवं सत्य के सामंजस्य के लिए प्रतिभा-अनुभूति पर विशेष बल दिया गया है।
छायावाद के आत्माभिव्यक्ति सिद्धांत में वैयक्तिक अनुभूति पर अधिक बल देने के कारण इनकी दृष्टि कवि-केंद्रित रही काव्य-केंद्रित नहीं। आगे चलकर इसका विरोध प्रगतिवाद तथा नयी कविता के काल में हुआ। एण्टी-रोमाण्टिक रुझान के लिए अज्ञेय और टी.एस. इलियट दोनों महत्त्वपूर्ण माने गए।
‘कविता क्या है’ यह प्रश्न हिंदी के प्रगतिवादी काव्य-चिंतन में नए ढंग से उठाया गया। यहाँ कविता की व्याख्या उसको विकासमान सामाजिक वस्तु’ मानकर की गई। ऐसी वस्तु, जिसका सृजन व्यक्तिगत प्रयास का परिणाम होते हुए भी मूलतः सामाजिक एवं सांस्कृतिक भूमि पर केंद्रित होता है। कविता में सांस्कृतिक परम्पराओं की संवेदना का समाहार रहता है।
गजानन माधव मुक्तिबोध ने कहा – ‘काव्य एक सांस्कृतिक प्रक्रिया है। प्रगतिवादी काला-प्रक्रिया को छायावादी काव्य-प्रक्रिया से भिन्न मानते हुए प्रगतिवाद के काव्य-चिंतन का स्वर मार्क्स से प्रभावित है और मानता है कि काव्यानुभूति की बनावट में सामाजिक सौंदर्यानुभूतियों की भूमिका प्रधान होती है।
डॉ.रामविलास शर्मा ने ‘प्रगति और परम्परा’ पुस्तक में माना है कि ‘वह (काव्य) एक महान सामाजिक क्रिया है – जो सामाजिक विकास के समानांतर विकसित होती रहती है।’ (पृ.130) कविता सामाजिक यथार्थ का चित्रण करती है। हिंदी के अधिकांश आरंभिक प्रगतिवादी काडवेल की इस मान्यता को मानते रहे कि ‘साहित्य वह मोती है जो समाज-रूपी सीपी में पलता है।’
कविता में जिस अनुभूति का चित्रण होता है वह वैयक्तिक न होकर सामाजिक होती है। इस सामाजिक अनुभूति में जटिलता-संश्लिष्टता और तनाव रहता है। अतः कविता सामूहिक भाव-बोध की अभिव्यक्ति है। आ.शुक्ल का यह विचार कि ‘ज्ञान प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है हिंदी के प्रगतिशील चिंतकों को मान्य रहा है।