लक्ष्य-बेध – श्री रामनाथ ‘सुमन
जिस व्यक्ति ने अपना लक्ष्य निश्चित कर लिया है, उसने अपने जीवन की एक बड़ी कठिनाई दूर कर दी है। वह अनिश्चय, भ्रम, भेद और संदेह के ऊपर उठ जाता है। तब उसके सामने एक प्रश्न होता है, लक्ष्य-बेध कैसे होगा; जीवन के उद्देश्य की सिद्धि कैसे होगी ?
संसार के मनीषियों और कर्मठ पुरुषों ने लक्ष्य-बेध के अनेक उपाय बताए हैं, पर जीवन में सफलता का, लक्ष्य-बेघ का एक मंत्र है जो कभी निरर्थक नहीं हुआ। हमारे कोश में एक छोटा-सा शब्द है- ‘तन्मयता । यह छोटा-सा शब्द ही जीवन में लक्ष्य-बेध या कार्य-सिद्धि का मूलमंत्र है। तन्मयता का अर्थ है कि जो लक्ष्य है, उसी से आप भर जाएँ, उसी में लीन हो जाएँ। वह फैलकर आपके संपूर्ण जीवन और कार्य की प्रत्येक दिशा को ढँक ले। सोते-जागते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, प्रत्येक क्रिया में, केवल वह लक्ष्य आपको दिखे, चारों ओर वही वह हो। आपका समस्त ध्यान उसी में केंद्रित हो, उससे अलग आपका जीवन असंभव हो जाए।
इस तन्मयता की बात करते हुए इतिहास की दो घटनाएँ याद आ रही हैं। पहली घटना महाभारत काल की है। आचार्य द्रोण राजकुमारों को बाणविद्या सिखा रहे थे। समय पर शिक्षा समाप्त हुई और राजकुमार आचार्य के समीप परीक्षा के लिए एकत्र हुए। आचार्य उन्हें एक वनस्थली में ले गए। एक वृक्ष के ऊपर बैठी चिड़िया की आँखों की पुतली के लक्ष्य-बेध का निश्चय हुआ। आचार्य ने सबको निशाना ठीक करने को कहा और तब एक छोटा-सा प्रश्न किया, “तुम्हें क्या दिखाई देता है ? किसी ने कहा, “वह वृक्ष की पतली टहनी है। उस पर लाल रंग की चिड़िया बैठी है। उसकी
आँख दिखाई दे रही है।” किसी ने कहा, “मुझे चिड़िया दिखाई देती है, उसकी आँख में निशाना लगा रहा हूँ।” मतलब किसी ने कुछ उत्तर दिया, किसी ने कुछ पर सबको अनेक पदार्थ दिखते रहे और उनके बीच लक्ष्य – बेध की तत्परता भी दिखाई पड़ी। जब अर्जुन की बारी आई और आचार्य ने उससे वही प्रश्न दोहराया तो उसने कहा-
“गुरुदेव, मुझे सिवाय चिड़िया की आँख की पुतली के और कुछ दिखलाई नहीं देता।”
आचार्य ने शिष्य की पीठ ठोकी और आशीर्वाद दिया। अर्जुन परीक्षा में सफल हुए।
दूसरी घटना मराठा इतिहास की है। सिंहगढ़ की विजय का दृढ़ संकल्प करके मराठों ने उस पर आक्रमण किया। सारे मराठा सैनिक एक गोह की सहायता से सिंहगढ़ पर चढ़ गए। घोर युद्ध हुआ। युद्ध में उनका नेता तानाजी मारा गया। उसके मारे जाते ही मराठों की सेना हिम्मत हारकर भागने लगी और जिस रस्से के बल चढ़कर ऊपर किले पर आई थी, उसी के सहारे नीचे उतरने का इरादा करने लगी। तानाजी के छोटे भाई सूर्याजी ने जब यह देखा तो आकर चुपके से रस्से का किले की ओरवाला हिस्सा काट दिया और जब मराठे उधर भागे तो चिल्लाकर कहा- मराठो भागते कहाँ हो ? वह रस्सा तो मैंने पहले ही काट दिया। जब मराठों ने देखा कि निकल भागने का कोई उपाय नहीं है, तब सब कुछ भूलकर सिंहगढ़ विजय कर लिया। ऐसे लड़े कि
दोनों घटनाएँ स्वयं अपनी बात कहती हैं। अर्जुन की उस परीक्षा के बाद हजारों वर्ष बीत गए हैं, पर आज भी जीवन की परीक्षा में कोटि-कोटि मनुष्यों के सामने आचार्य द्रोण का वह प्रश्न उपस्थित है, तुम्हें क्या दिखाई देता है 2-
इस प्रश्न के उचित उत्तर पर ही जीवन की सिद्धि निर्भर है। मानवजीवन की सफलता- असफलता की यह एक चिरन्तन कथा है। यह उत्तर लक्ष्य-बेध का एक ही उपाय बताता है- लक्ष्य में तन्मयता’ । जहाँ साधक लक्ष्य में तन्मय है, जहाँ उसे और कुछ दिखाई नहीं देता, जहाँ वह सब कुछ भूल गया है, अपने चारों ओर के ध्यान बँटानेवाले पदार्थों को भूल गया है, लक्ष्य है, लक्ष्य है
और कुछ नहीं, यहाँ लक्ष्य बेध निश्चित है। दूसरी घटना भी यही कहती है कि जब तक रस्सा काटकर पीछे लौटने की संपूर्ण संभावनाओं का अंत आपने नहीं कर दिया, जब तक लक्ष्य से मन को इधर-उधर हटानेवाला एक भी साधन आपने बच्चा रखा है तब तक लक्ष्य वेध नहीं होगा।
इन दोनों में एक ही बात दोहराई गई है कि लक्ष्य में चित्त को केंद्रित करके लक्ष्य-बेध करो।
धनुष से छूटनेवाला बाण वायुमंडल में यहाँ यहीं नहीं घूमता वह अपने चारों ओर के पदार्थों से नहीं उलझता। वह दाएँ-बाएँ, ऊपर-नीचे नहीं देखता। वह जिस क्षण छूटता है, उसी क्षण से अपने लक्ष्य में केंद्रित होता है। उसका लक्ष्य एक है, उसकी दिशा एक है। वह सीधा जाकर अपने लक्ष्य में मिल जाता है।
कुतुबनुमा की सुई की भाँति एक दिशा और एक लक्ष्य में केंद्रित होना उद्देश्य-सिद्धि का उपाय है। इससे हमारे जीवन के मार्ग में दूसरे सैकड़ों प्रकाश हमें अपने मार्ग से बहका देने के लिए चमकेंगे और प्रयत्न करेंगे कि हमें अपने कर्त्तव्य और सत्य से डिगा दें पर हमें चाहिए कि अपने उद्देश्य की सुई को ध्रुव तारे की ओर से कभी न हटने दें।
मन की संपूर्ण चेतना को इच्छाशक्ति को किसी एक कार्य दिशा या लक्ष्य में केंद्रित कर देना ही तन्मयता है। जब सूर्य की किरणों को किसी आतिशी शीशे के सहारे एक कागज के टुकडे पर केंद्रित करते हैं तो कागज जल उठता है। जल में प्रच्छन्न विद्युत को कुछ साधनों से केंद्रित करके बड़े-बड़े कारखाने चलाए जाते हैं। शक्ति पहले भी वहीं रहती है, पर बिखरी होने से वह बेकार है। एकाग्र करके उससे संसार को हिलाया जा सकता है। वैज्ञानिकों का कथन है कि एक एकड़ भूमि की घास में इतनी शक्ति बिखरी हुई होती है कि उसके द्वारा संसार की सारी मोटरों और चक्कियों का संचालन किया जा सकता है।
संसार में काम करनेवाले बहुत हैं, काम को बोझ समझकर करनेवाले और भी अधिक हैं, पर लक्ष्य के प्रति समर्पित होकर, उसमें एकनिष्ठ होकर काम करनेवाले बहुत थोड़े हैं। पर ये थोडे से मनुष्य ही हैं जो संसार को हिला देते हैं, जो अपनी एकाग्रता से जीवन में सफलता प्राप्त करते हैं। आप अपने लिए जो भी लक्ष्य चुनिए, उसमें अपने मन और शरीर अपनी संपूर्ण शक्तियों को केंद्रित कर लीजिए। वह और आप एक हो जाइए। दुनिया को भूल जाइए, अपने को भूल जाइए. केवल लक्ष्य के दर्शन कीजिए और तब उसे बेध लीजिए संसार आपका है, जीवन आपका है, सफलता आपकी है।
पाठ से
प्रश्न 1. लेखक के अनुसार लक्ष्य भेद का मूल मंत्र क्या है ? और क्यों
उत्तर- लेखक के अनुसार लक्ष्य भेद का मूलमंत्र ‘तन्मयता’ है। तन्मयता का अर्थ है-लक्ष्य में लीन होना। क्योंकि तन्मयता से ही लक्ष्य की प्राप्ति हो सकेगी।
प्रश्न 2. किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति में तन्मयता की क्या भूमिका है ?
उत्तर- किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति में तन्मयता ही वह मूलमंत्र है। जिससे कार्य सिद्धि संभव होती है जब मन की संपूर्ण चेतना को किसी एक दिशा में केन्द्रित किया जाता है तो सही तन्मयता उस कार्य को सफल बनाती है।
प्रश्न 3. पाठ में तन्मयता के उदाहरण कौन-कौन से है ?
उत्तर- पाठ में तन्मयता के दो उदाहरण हैं-
(1) महाभारत काल की जिसमें अर्जुन ने सफलता पाई थी।
(2) मराठा इतिहास का जिसमें मराठों ने सिंहगढ़ पर विजय प्राप्त की।
प्रश्न 4. प्रसिद्ध धनुर्धर अर्जुन के लक्ष्यभेद के बारे में कौन-सी कथा है ?
उत्तर-एक बार द्रोणाचार्य सभी राजकुमारों की परीक्षा लेते हैं जिसमें लक्ष्यवेध करना था। गुरु ने सभी राजकुमारों से प्रश्न किया कि तुम्हें क्या दिखाई देता है। वास्तव में वे उनकी लक्ष्य के प्रति तन्मयता को परखना चाहते। अर्जुन के अतिरिक्त सभी राजकुमारों ने तन्मयता हीन उत्तर दिया, परन्तु अर्जुन ने गुरु द्रोण के प्रश्न का उत्तर दिया कि “गुरुदेव मुझे सिवाय चिड़िया की आँख की पुतली के अलावा और कुछ दिखाई नहीं दे रहा है। अर्जुन इस परीक्षा में सफल हुए क्योंकि वे अपने लक्ष्य के प्रति लीन थे।
प्रश्न 5. सिंहगढ़ के किले को मराठे कैसे जीत पाए ?
उत्तर- युद्ध में ‘तानाजी’ के मारे जाने पर मराठा सेना हिम्मत हारकर भागने लगी तो सूर्याजी ने चुपके से रस्से का किने वाला सिरा काट दिया था, जब मराठों ने देखा कि निकल भागने का कोई उपाय नहीं है तब सब कुछ भूलकर ऐसे लड़े कि सिंहगढ़ पर विजय प्राप्त की ।
प्रश्न- 6. कुतुबनुमा की सुई हमें क्या सीख देती है
उत्तर-कुतुबनुमा की सुई हमें एक दिशा और एक लक्ष्य में केन्द्रित होने की सीख देती है।
प्रश्न 7. संसार में काम करने वाले कैसे-कैसे लोग है ?
उत्तर-संसार में काम करने वाले बहुत है, काम को बोझ समझ करने वाले और भी अधिक है, पर लक्ष्य प्राप्ति के प्रति समर्पित होकर उसमें एकनिष्ठ होकर काम करने वाले बहुत कम हैं।
प्रश्न 8. लेखक के अनुसार लक्ष्य भेद के लिए क्या आवश्यक है ?
उत्तर- लेखक के अनुसार लक्ष्य भेद के लिए ‘तन्यमता’ तथा सन की एकाग्रता आवश्यक है।
पाठ से आगे
प्रश्न 1, आप सभी अपने-अपने लक्ष्य की कल्पना कीजिए तथा सोचिए कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति कैसे करेंगे ? आपस में चर्चा कर लिखिए।
उत्तर- हम अपने लक्ष्य के प्रति एकाग्र होकर पूरी तन्मयता से उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करेंगे।
प्रश्न 3. लक्ष्य से सफलता और असफलता जुड़ी हुई है। परीक्षा में सफल होना आपका लक्ष्य होता है तो इसमें अपनी सफलता के लिए क्या-क्या चाहेंगे ? आपस में चर्चा कर लिखिए।
उत्तर- अपनी सफलता के लिए हम पढ़ाई मन लगाकर करना चाहेंगे, एकाग्रचित्त होकर हम पूरी तन्मयता के साथ अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना चाहेंगे। अभ्यास निरन्तरता को हम सदैव बनाये रखना चाहेंगे।
प्रश्न 4. आचार्य द्रोणाचार्य द्वारा ली गई परीक्षा में अर्जुन के अतिरिक्त सभी राजकुमार क्यों असफल हो गए ? साथियों से बातचीत कर इस प्रश्न का उत्तर लिखिए।
उत्तर- आचार्य द्रोण द्वारा ली गई परीक्षा में अर्जुन के अतिरिक्त अन्य राजकुमार इसलिए असफल रहे कि उन सबको अनेक पदार्थ दिखाई दे रहे थे और उनके बीच लक्ष्य-बेध की तत्परता भी नहीं दिखायी। पड़ी अर्थात् उनके लक्ष्य में तन्मयता नहीं थी।