घर की याद – भवानी प्रसाद मिश्र कक्षा 11 हिन्दी पद्य खंड

घर की याद

आज पानी गिर रहा है,

बहुत पानी गिर रहा है, रात भर गिरता रहा है, प्राण मन घिरता रहा है,

बहुत पानी गिर रहा है, घर नज़र में तिर रहा है, घर कि मुझसे दूर है जो घर खुशी का पूर है जो

घर कि घर में चार भाई, मायके में बहिन आई, बहिन आई बाप के घर हाय रे परिताप के घर

घर कि घर में सब जुड़े हैं. सब कि इतने कब जुड़े हैं, चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें,

और माँ बिन पढ़ी मेरी, दुःख में वह गढ़ी मेरी माँ कि जिसकी गोद में सिर, रख लिया तो दुख नहीं फिर

माँ कि जिसकी स्नेह धारा, का यहाँ तक भी पसारा, उसे लिखना नहीं आता, जो कि उसका पत्र पाता।

पिता जी जिनको बुढापा.. एक क्षण भी नहीं व्यापा जो अभी भी दौड़ जाएँ.. जो अभी भी खिलखिलाएँ,

मौत के आगे न हिचके, शेर के आगे न बिचर्के, बोल में बादल गरजता, काम में झंझा लरजता,

आज गीता पाठ करके, दंड दो सौ साठ करके, खूब मुगदर हिला लेकर, मूठ उनकी मिला लेकर,

जब कि नीचे आए होंगे, जल से छाए होंगे, हाय, पानी गिर रहा है. घर नज़र में तिर रहा है,

चार भाई चार बहिनें, भुजा भाई प्यार बहिनें, खेलते खड़े होंगे, नजर उनको पड़े होंगे।

पिता जी जिनको बुढापा, एक क्षण भी नहीं व्यापा रो पड़े होंगे बराबर, पाँचवें का नाम लेकर

पाँचवाँ मैं हूँ अभागा,

58%

जिसे सोने पर सुहागा, पिता जी कहते रहे हैं, प्यार में बहते रहे हैं,

आज उनके स्वर्ण बेटे, लगे होंगे उन्हें हेटे, क्योंकि मैं उनपर सुहागा बंधा बैठा हूँ अभागा,

और माँ ने कहा होगा,

दुःख कितना बहा होगा, आँख में किस लिए पानी वहाँ अच्छा है भवानी

वह तुम्हारा मन समझकर, और अपनापन समझकर, गया है सो ठीक ही है, यह तुम्हारी लीक ही है,

पाँव जो पीछे हटाता, कोख को मेरी लजाता, इस तरह होओ न कच्चे, रो पड़ेंगे और बच्चे,

पिता जी ने कहा होगा, हाय, कितना सहा होगा, कहाँ, मैं रोता कहाँ हूँ, धीर में खोता, कहाँ हूँ,

हे सजीले हरे सावन, है कि मेरे पुण्य पावन, तुम बरस लो वे न बरसे, पाँचवे को वे न तरसें,

मैं मजे में हूँ सही है, घर नहीं हूँ बस यही हैं. किंतु यह बस बड़ा बस है, इसी बस से सब विरस है,

किंतु उनसे यह न कहना.. उन्हें देते धीर रहना, उन्हें कहना लिख रहा उन्हें कहना पढ़ रहा

काम करता हूँ कि कहना, नाम करता हूँ कि कहना, चाहते हैं लोग कहना, मत करो कुछ शोक कहना,

और कहना मस्त हूँ मैं, कातने में व्यस्त हूँ मैं, सतर सेर मेरा, और भोजन ढेर मेरा,

कूदता हूँ, खेलता दुःख डट कर ठेलता हूँ. और कहना मस्त हूँ मैं. यो न कहना अस्त हूँ मैं,

हाय रे, ऐसा न कहना, है कि जो वैसा न कहना, कह न देना जागता आदमी से भागता

कह न देना मौन हूँ मैं, खुद न समझें कौन हूँ मैं, देखना कुछ बक न देना, उन्हें कोई शक न देना,

हे सजीले हरे सावन, हे कि मेरे पुण्य पावन, तुम बरस लो वे न बरसे, पाँचवें को वे न तरसे।