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गीताऽमृतम् कक्षा सातवीं विषय संस्कृत पाठ 7

गीताऽमृतम् कक्षा सातवीं विषय संस्कृत पाठ 7

1. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय,
नवानि गृहणति नरोऽवानि पराणि।
तथा शरीराणि विहाय
जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।

शब्दार्था: यथा = जिस प्रकार, नरो = मनुष्य, जीर्णानि = पुराने, वासांसि = वस्त्र को, विहाय = त्याग कर, तथा = उसी प्रकार, देही = आत्मा, संयाति = धारण करती है।

अर्थ-जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्र को त्यागकर नये वस्त्र को धारण करता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर को धारण करती है।

2. नैनं छिन्दति शास्त्राणि, नैनं दहति पावकः
न चैनं क्लेदमन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥

शब्दार्था: नैनं (न + एनम्) इस (आत्मा) को नहीं, छिन्दति = काट सकता है, पावक:= अग्नि, दहति = जला सकती है, आप: = जल, मारुतः = वायु।

अर्थ आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसे आग नहीं जला सकती, इसे जल नहीं गला सकता और वायु नहीं सुखा सकती।

3. जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्भुवंजन्म मृतस्य च।
तस्माद परिहार्ये ऽर्यं न त्वं शोचितुमर्हसि ॥

शब्दार्था- हि = क्योंकि, जातस्य = जन्मे हुए को, मृतस्य = मरे हुए का, ध्रुवं = निश्चित है, शोचितुं = शोक करने, अर्हसि = योग्य हो, तस्मात्= इससे

अर्थ -क्योंकि इस मान्यता के अनुसार जन्मे हुए की मृत्यु निश्चित है और मरे हुए का जन्म लेना निश्चित है। इससे भी इस बिना उपाय वाले विषयों में तू शोक करने के योग्य नहीं है।

4. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन् ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङगो ऽस्त्वकर्मणि ॥

शब्दार्था:- ते =  तुम्हारा, कदाचन = कभी नहीं, मान= भू बनो, सङ्गः=  आसक्ति, अस्तु – हो।

अर्थ-तेरा कर्म करने में ही अधिकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसलिए तू कर्मों के फल का हेतु मत हो तथा तेरी कर्म न करने में भी आसक्ति न हो।

5. यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानम धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥

शब्दार्थी :- भारत = अर्जुन, ग्लानिः= हानि, सृजामि = रचता हूँ।

अर्थ- हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूप को रचता हूँ अर्थात् साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूँ।

6. परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ।।

शब्दार्थाः- परित्राणाय = उद्धार करने के लिए (रक्षा करने के लिए), दुष्कृताम् = दुष्टों के, साधुनां = सज्जनों के, युगे-युगे= हर युग में, सम्भवामि = प्रगट होता हूँ।

अर्थ- साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए, पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के लिए और धर्म की अच्छी तरह से स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।

7. श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमभचिरेणाधिगच्छति ॥

शब्दार्थाः- लभते = प्राप्त करता है, संयतेन्द्रियः जितेन्द्रिय, लब्ध्वा = प्राप्त करके, परां = परम, अचिरेण = तत्काल (शीघ्र)

अर्थ – जितेन्द्रिय, साधन परायण और श्रद्धावान मनुष्य ज्ञान को प्राप्त होता है तथा ज्ञान को प्राप्त होकर वह बिना विलम्ब के तत्काल ही भगवत प्राप्ति रूप परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

8. यो मां पश्यति सर्वत्र सर्व च मयि पश्यति ।
तस्याहं प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ॥

शब्दार्था: यो = जो, मां = मुझे, सर्वत्र = हर जगह, मयि=मुझमें, पश्यति = देखता है, मे = मेरे लिए।

अर्थ- जो पुरुष सम्पूर्ण भूतों में सबसे आत्मरूप मुझ वासुदेव को ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को मुझ वासुदेव के अन्तर्गत देखता है, उसके लिए मैं अदृश्य नहीं होता और वह मेरे लिए अदृश्य नहीं होता।

9. यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः
तत्र श्रीर्विजयो भूमिर्धुवा नीतिर्मतिर्मम ॥

शब्दार्था = यत्र – जहाँ, पार्थो= अर्जुन, तत्र = वहाँ, श्री- सफलता (लक्ष्मी), विजय = जीत, मति = विचार, मम = मेरा, धुवा = निश्चित है।

अर्थ- हे राजन् ! जहाँ योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण है और जहाँ गाण्डीव धनुर्धारी अर्जुन है, वहीं परश्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा मत है।