सरलता और सहृदयता कक्षा 6 हिन्दी

सरलता और सहृदयता

वह नौकर बचपन से ही उनके घर काम करता आ रहा था। अब वह बूढ़ा हो गया था। उसने घर के बच्चों को अपनी उँगली पकड़कर चलना सिखाया था अब वे बच्चे बड़े हो गए थे। वे बच्चे ऊँचे-ऊँचे पदों पर पहुँच गए थे। पर इस बूढ़े काका के प्रति सबके मन में स्नेह और सम्मान की भावना थी। सब उन्हें अपने परिवार का एक सदस्य समझते थे। परिवारवाले चाहते थे कि ये बूढ़े काका अब काम-काज करना बंद कर दें और शेष जीवन आराम से गुजारें, पर ये थे कि मानते ही नहीं थे। घर की सफाई, झाड़ू-पोंछ तथा कमरों की देख-भाल खुद किया करते थे।

एक दिन ये बूढ़े काका अपने बाबू के पढ़ने के कमरे की सफाई कर रहे थे। अपने बाबू के एक-एक सामान को उठाते, उसकी धूल पोंछते और उसे यथा स्थान रख देते। अचानक एक दिन जाने कैसे एक बहुत कीमती कलमदान उनके हाथ से छूट गया। कोई साधारण कलमदान नहीं था वह, कारीगरी का उत्कृष्ट नमूना था, बहुत कीमती तथा दुर्लभ था।

बूढ़े काका जी टूटे हुए कलमदान को एकटक देखते रहे। उन्हें कुछ सूझा नहीं कि अब क्या करें? चुपचाप वह टूटा हुआ कलमदान उठाकर मेज़ पर रख दिया, पर वे बहुत घबरा गए। बाबू आएँगे, तो वे उनसे क्या कहेंगे? वे डाटेंगे, तो मैं क्या उत्तर दूंगा? ऐसा कीमती कलमदान तो अब मिलेगा नहीं, कितना दुख होगा ‘बाबू’ को ?’ यही सोच-सोचकर उनका दिल बैठा जा रहा था।

सायंकाल ‘बाबू’ आए और भोजन के उपरान्त अपने कमरे में अपना दैनिक काम-काज निपटाने चले गए। कमरे में पहुँचे ही थे कि उनकी नज़र टूटे हुए कलमदान पर पड़ी। वे इतने कीमती कलमदान को टूटा हुआ देखकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने उसे उठाया तो देखा उसके दो टुकड़े हो चुके थे। उन्होंने बूढ़े काका को आवाज़ दी काका काका ।’

बूढ़े काका ने डरते हुए प्रवेश किया। ‘यह कलमदान किसने तोड़ा ?’ मुझसे टूट गया, मालिक।’

“कैसे?” मैं सफाई कर रहा था कि अचानक हाथ से छूट गया।’

जानते हो यह कितना कीमती था ? ऐसा दूसरा कलमदान कहाँ मिलेगा?’ बूढ़े काका सिर नीचा किए सुनते रहे।

‘अब खड़े-खड़े मेरा मुँह क्या देख रहे हो, जाओ यहाँ से।…… और हाँ, कल से मेरे पढ़ने के कमरे की सफाई मत करना। बूढा डॉट खाकर सिर नीचे किए चुपचाप चला गया। उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। इससे पहले अपने ‘बाबू’ से उसे कभी ऐसी डॉट नहीं खानी पड़ी थी।

रात हो गई। ‘बाबू’ अपने बिस्तर पर लेटे-लेटे सोने की कोशिश कर रहे थे, पर न जाने क्यों आज नींद आने का नाम ही नहीं लेती थी। उनका मन अशांत था। वे रह-रहकर अपने कलमदान, बूढ़े काका और उनके प्रति अपने व्यवहार के बारे में सोच रहे थे।

‘बचपन से ही ये काका हमारे यहाँ काम कर रहे हैं। इन्होंने तो मुझे उँगली पकड़कर चलना सिखाया। क्या उनके प्रति मेरा ऐसा कठोर व्यवहार उचित था ?”

‘क्या एक कलमदान एक व्यक्ति के सम्मान से अधिक कीमती है ?’

‘अगर गलती से उनसे वह कीमती कलमदान टूट भी गया, तो क्या हुआ ? यदि वह मुझसे गिरकर टूट जाता तो P

“कितनी सेवा की है उन्होंने हमारे परिवार की? कभी शिकायत का कोई मौका नहीं दिया, पर आज मैंने उन पर इतना क्रोध करके क्या उनकी सारी सेवा पर पानी नहीं फेर दिया?.. ..इस तरह के अनेक सवाल ‘बाबू’ के मन में उठते और उनका मन अधीर हो उठता।

रात काफी हो चुकी थी। बाबू ने बूढ़े काका को आवाज़ दी। बूढ़े काका भी सो नहीं रहे थे। वे भी अपनी गलती को याद करके आँसू बहा रहे थे। अचानक बाबू की आवाज सुनकर उन्होंने आँसुओं को पोंछा और वे डरते-डरते ‘बाबू’ के कमरे की ओर जाने लगे। परंतु काका ने देखा बाबू उन्हीं की ओर आ रहे हैं। काका की घबराहट और बढ़ गई। वे सोचने लगे, ‘शायद बाबू का गुस्सा अभी ठंडा नहीं हुआ है। काका सिर नीचे करके खड़े हो गए।

‘काका मुझे माफ कर दो। मैं अपने व्यवहार पर शर्मिंदा हूँ।’ अचानक बाबू के मुँह से निकला। बूढ़ा काका उनके मुँह की ओर देखता रह गया। इतना बड़ा आदमी एक छोटे से नौकर से माफी माँग रहा है । वह ‘बाबू’ के पैरों में गिरकर माफी माँगने को झुका ही था कि बाबू ने उसे बीच में ही रोक दिया । काका! क्या आप मुझे क्षमा नहीं करेंगे ?”

‘बाबू ! आप ये क्या कह रहे हैं? मुझसे जो भूल हुई है, मैं उसके लिए शर्मिंदा हूँ। फिर कहाँ आप और कहाँ मैं ?’

बाबू बोले, ‘जब तक आप मेरे सर पर हाथ रखकर नहीं कहेंगे कि आपने मुझे क्षमा कर दिया है, मुझे चैन नहीं पड़ेगा ।’ बूढ़े काका की आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गई। उन्हें बाबू के सिर पर हाथ रखकर कहना पड़ा, ‘अच्छा, चलो, मैंने अपने बाबू’ को क्षमा कर दिया।’

बच्चो ! क्या तुम जानते हो ये बाबू’ कौन थे ? ये ‘बाबू’ थे भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद। यह घटना तब की है, जब वे राष्ट्रपति भवन में थे और उनके एक पुराने बूढ़े सेवक से उनका एक बेशकीमती कलमदान टूट गया था जो उन्हें किसी बड़े आदमी ने उपहार में दिया था। जरा सोचो, भारत के राष्ट्रपति होकर भी वे कितने उदार, सहृदय और विनम्र थे। घमंड तो उन्हें छू तक न गया था।

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