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सिल्वर वैंडिंग पाठ का सार (Silver Wedding Summary)
सिल्वर वैडिंग नामक कहानी के लेखक मनोहर श्याम जोशी जी हैं। इस कहानी के द्वारा उन्होंने पुरानी पीढ़ी व नई पीढ़ी के विचारों व जीने के तौर तरीकों के अंतर को स्पष्ट करने का सफल प्रयत्न किया है। कहानी के मुख्य पात्रों में यशोधर बाबू, उनकी पत्नी, उनके बच्चे व् किशनदा आदि शामिल हैं। एक और जहाँ यशोधर बाबू पुराने ख्यालात के व्यक्ति हैं जो अपने परंपरागत आदर्शों और अपने संस्कारों को जीवित रखना चाहते है वहीँ दूसरी ओर उनके बच्चे नए जमाने के हिसाब से जीवन जीने में विश्वास रखते है। कहानी में भी इसी नई पीढ़ी व् पुरानी पीढ़ी के बीच के द्वंद्व को दर्शाया गया है।
वाई.डी. पंत अर्थात यशोधर बाबू जो की सेक्शन ऑफिसर हैं वे अपने दफ़्तर की पुरानी दीवार घड़ी पर नजर दौड़ाते हैं जो पाँच बजकर पच्चीस मिनट बजा रही थी। उसके बाद वे अपनी कलाई घड़ी को देखते हैं जिसमें साढ़े पाँच बज रहे थे। यशोधर बाबू अपनी घड़ी रोजाना सुबह-शाम रेडियो समाचारों से मिलाते हैं इसलिए उन्होंने अपने दफ़्तर की घड़ी को ही सुस्त ठहराया। वैसे तो उनका ऑफिस पाँच बजे ही समाप्त हो जाता था किन्तु यशोधर बाबू के कारण सभी को पांच बजे के बाद भी दफ़्तर में बैठना पड़ता हैं। चलते-चलते जब उन्होंने कहा कि ऑफिस के लोगों की देखादेखी में सेक्शन की घड़ी भी सुस्त हो गई है! तब उनकी पुरानी कलाई घडी पर चड्डा ने व्यंग्य करते हुए कहा कि क्या उनकी अपनी चूनेदानी वक्त सही देती है? इसके जवाब में उन्होंने कहा कि मिनिट-टू-मिनिट करेक्ट चलती है। जब उन्हें डिजिटल घड़ी लेने की सलाह दी गई तब उन्होंने बताया कि उनकी यह घड़ी उनकी शादी का उपहार है। इस तरह जब वे नहले पर दहला जवाब दे रहे थे तब उन्हें किशनदा की याद आ गई। किशनदा कुँआरे थे और पहाड़ से आए हुए न जाने कितने लड़के ठीक-ठिकाना होने से पहले उनके यहाँ रह जाते थे। यशोधर बाबू भी जिस समय दिल्ली आए थे उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। तब किशनदा ने उन्हें मैस का रसोइया बनाकर रख लिया। यही नहीं, उन्होंने यशोधर बाबू को पचास रूपये उधार भी दिए थे ताकि वह अपने लिए कपड़े बनवा सके और गाँव पैसा भेज सके। बाद में किशनदा ने ही अपने ही नीचे नौकरी दिलवाई और दफ़्तरी जीवन में उनका मार्ग-दर्शन भी किया। शादी के बारे में पूछने पर यशोधर बाबू ने बताया कि उनकी शादी सिक्स्थ फरवरी नाइंटिन फोर्टी सेवन में हुई थी। जब एक कर्मचारी ने हिसाब लगाया तो पता कि आज तो उनकी ‘सिल्वर वैडिंग’ है। सभी के जोर देने पर न चाहते हुए भी यशोधर बाबू ने तीस रूपए चाय पार्टी के लिए दिए परन्तु खुद उस पार्टी में शामिल नहीं हुए क्योंकि चाय-पानी और गप्प-गप्पाष्टक में वक्त बरबाद करना किशनदा की परंपरा के विरुद्ध है। ऐसे तो यशोधर बाबू अपने बटुए में सौ-डेढ़ सौ रुपये हमेशा रखते हैं परन्तु उनका दैनिक खर्च बिलकुल न के बराबर है। क्योंकि पहले तो गोल मार्केट से ‘सेक्रेट्रिएट’ तक वे साइकिल में आते-जाते थे, मगर अब पैदल आने-जाने लगे हैं क्योंकि उनके बच्चों को उनका साइकिल-सवार होना सख्त नागवार है। बच्चों के अनुसार साइकिल तो चपरासी चलाते हैं। स्कूटर उन्हें पसंद नहीं और कार वे ‘अफोर्ड’ नहीं कर सकते। यशोधर बाबू रोज दफ्तर से बिड़ला मंदिर जाते हैं और उसके उद्यान में बैठकर प्रवचन सुनते हैं। यह बात उनके पत्नी-बच्चों को अच्छी नहीं लगती। क्योंकि उनके अनुसार वे इतने बुड्डे नहीं हैं कि रोज़-रोज़ मंदिर जाएँ, इतने ज़्यादा व्रत करें। बिड़ला मंदिर से यशोधर बाबू पहाड़गंज जाते हैं और घर के लिए साग-सब्जी खरीद लाते हैं। ये सब काम निपटाते हुए वे घर आठ बजे से पहले नहीं पहुँचते।
आज जब यशोधर बाबू बिड़ला मंदिर जा रहे थे तो उनकी नजर किशनदा के तीन बैडरूम वाले क़्वार्टर पर पड़ी जहाँ अब इन दिनों एक छह मंज़िला इमारत बनाई जा रही है। यशोधर बाबू को भी नयी बस्तियों में पद की गरिमा के अनुरूप डी-2 टाइप क़्वार्टर मिलने की अच्छी खबर कई बार आई है मगर हर बार उन्होंने गोल मार्केट छोड़ने से इंकार कर दिया है। यशोधर बाबू का अपनी पत्नी और बच्चों से हर छोटी-बड़ी बात में मतभेद होने लगा है और इसी वजह से वह घर जल्दी लौटना पसंद नहीं करते। उनका बड़ा लड़का एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी कर रहा है। यशोधर बाबू को अपने साधारण पुत्र को असाधारण वेतन देने वाली यह नौकरी कुछ समझ में आती नहीं। दूसरा बेटा आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा है, तीसरा बेटा स्कालरशिप लेकर अमरीका चला गया है और उनकी एकमात्र बेटी भी डाक्टरी की उच्चतम शिक्षा के लिए स्वयं भी अमरीका जाना चाहती है। यशोधर बाबू एक ओर तो बच्चों की इस तरक्की से खुश होते हैं वहीँ दूसरी और अनुभव करते हैं कि वह खुशहाली भी कैसी जो अपनों में परायापन पैदा करे। यशोधर बाबू की पत्नी अपने मूल संस्कारों से किसी भी तरह आधुनिक नहीं है परन्तु बच्चों की तरफदारी करने की मातृसुलभ मजबूरी ने उन्हें भी मॉड बना डाला है। धर्म-कर्म, कुल-परंपरा सबको ढोंग-ढकोसला कहकर घरवाली आधुनिकाओं-सा आचरण करती है तो यशोधर बाबू ‘शानयल बुढ़िया’, ‘चटाई का लँहगा’ या ‘बूढ़ी मुँह मुँहासे, लोग करें तमासे’ कहकर उसके विद्रोह को मजाक में उड़ा देना चाहते हैं, अनदेखा कर देना चाहते हैं लेकिन यह स्वीकार करने को बाध्य भी हो जाते हैं कि तमाशा स्वयं उनका बन रहा है। यह सब देख कर कभी यशोधर बाबू सोचते हैं कि काश वे भी किशनदा की तरह विवाह ही नहीं करते परन्तु फिर उनका ध्यान इस ओर गया कि किशनदा का बुढ़ापा सुखी नहीं रहा था। किशनदा कुछ साल राजेंद्र नगर में किराए का क़्वार्टर लेकर रहा और फिर अपने गाँव लौट गया जहाँ साल भर बाद उसकी मृत्यु हो गई। विचित्र बात यह थी कि उन्हें कोई भी बीमारी नहीं हुई थी। जब उसके एक बिरादर से मृत्यु का कारण पूछा तब उसने यशोधर बाबू को यही जवाब दिया, “जो हुआ होगा।” यानी ‘पता नहीं, क्या हुआ।’
आज प्रवचन सुनने में यशोधर जी का मन नहीं लग रहा था। यशोधर बाबू ने जब गीता महिमा की व्याख्या में जनार्दन शब्द सुना तो उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद हो आई। परसों ही कार्ड आया था कि उनकी तबीयत खराब है। यशोधर बाबू सोचने लगे कि जीजाजी का हाल पूछने अहमदाबाद जाना ही होगा। परन्तु उनके बच्चों व् पत्नी को उनका परिवार के लिए एकतरफा लगाव अच्छा नहीं लगता। पत्नी का कहना है कि यशोधर जी का स्वयं का देखा हुआ कुछ नहीं है। माँ के मर जाने के बाद छोटी-सी उम्र में वह गाँव छोड़कर अपनी विधवा बुआ के पास अल्मोड़ा आ गए थे। बुआ का कोई ऐसा लंबा-चौड़ा परिवार तो था नहीं जहाँ कि यशोधर जी कुछ देखते और परंपरा के रंग में रंगते। मैट्रिक पास करते ही वह दिल्ली आ गए और यहाँ रहे कुँआरे कृष्णानंद जी के साथ। कुँआरे की गिरस्ती में देखने को होता क्या है? परन्तु यशोधर बाबू कहते हैं कि जब उन्होंने बच्चों व् पत्नी के आधुनिक होने पर रोक-टोक नहीं कि तो उन लोगों को भी उनके जीने के ढंग पर कोई एतराज़ होना नहीं चाहिए।
यशोधर बाबू को भी हर पिता की तरह यह अच्छा लगता अगर उनके बेटे बड़े होने पर घर की कुछ जिम्मेदारी अपने पिता से छुड़वा कर खुद करने का प्रस्ताव रखते जैसे कि दूध लाना, राशन लाना, सीजी. एच. एस. डिस्पेंसरी से दवा लाना, सदर बाजार जाकर दालें लाना, पहाड़गंज से सब्जी लाना, डिपो से कोयला लाना। खुद से तो कभी उनके बच्चों ने जिम्मेदारी उठाना मुनासिब नहीं समझा और जब यशोधर बाबू ने खुद बेटों से कहा तब उनके बेटे एक-दूसरे से काम करने को कहने लगे। घर में इतना कलेश हुआ कि यशोधर बाबू ने इस विषय पर बात करना ही बंद कर दिया। जब से उनका बेटा विज्ञापन कंपनी में बड़ी नौकरी करने लगा है तब से ऐसा मालूम होता है जैसे उसे अपने पैसों पर घमंड आ गया हो। क्योंकि वह यशोधर बाबू से घर के कामों को करने के लिए नौकर रखने की बात करता है और उसकी तनख्वाह भी वह स्वयं देगा इस तरह रौब दिखता है। यशोधर बाबू भी चाहते कि उनका बेटा अपना वेतन उनके हाथों में रखे या झूठे ही सही एक बार यह कह तो दे। परन्तु इसके विपरीत यदि उसके किसी काम में यशोधर बाबू कोई नुक्स निकालते तो वह कह देता कि यह काम मैं अपने पैसे से करने को कह रहा हूँ, आपके से नहीं जो आप नुक्ताचीनी करें। अपना वेतन वह अपने ढंग से वह घर पर खर्च कर रहा है। कभी कारपेट बिछवा रहा है, कभी पर्दे लगवा रहा है। कभी सोफा आ रहा है कभी डनलपवाला डबल बैड और सिंगार मेज़। कभी टी. वी., कभी फ्रिज। परन्तु यशोधर बाबू को यह सब बेकार लगता है और वह अपनी पत्न्नी को भी यही समझाते हैं। यह सब सोचते हुए जब यशोधर बाबू सब्जी का झोला लेकर अपने क़्वार्टर पहुंचे तो क़्वार्टर के बाहर कार, कुछ स्कूटर-मोटर साइकिल, बहुत से लोग विदा ले-दे रहे थे। बाहर बरामदे में रंगीन कागज़ की झालरें और गुब्बारे लटके हुए थे और रंग-बिरंगी रोशनियाँ जली हुई थीं। एक पल के लिए उन्हें लगा कि वे गलत घर आ गए हैं किन्तु अपने बड़े बेटे भूषण को पहचान लिया किन्तु उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि उनके घर में यह क्या हो रहा है।उनकी बेटी, पत्न्नी और सभी मेहमान यशोधर बाबू को आधुनिक किस्म के लग रहे थे। इन आधुनिक किस्म के अजनबी लोगों की भीड़ देखकर यशोधर बाबू अँधेरे में ही दुबके रहे। और जब सभी कार वाले मेहमान चले गए तब वे अपने घर में दाखिल हुए और देखा कि भीतर अब भी पार्टी चल रही थी। यशोधर बाबू को देख कर उनके बड़े बेटे ने झिड़की-सी सुनाई कि सिल्वर वैडिंग के दिन भी साढ़े आठ बजे घर पहुँचे हैं। भले ही अपनी सिल्वर वैडिंग की यह पार्टी भी यशोधर बाबू को समहाउ इंप्रापर ही लगी परन्तु उन्हें इस बात से संतोष हुआ कि जिस अनाथ यशोधर के जन्मदिन पर कभी लड्डू नहीं आए, जिसने अपना विवाह भी कोऑपरेटिव से दो-चार हजार कर्जा निकालकर किया बगैर किसी खास धूमधाम के, उसके विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर केक, चार तरह की मिठाई, चार तरह की नमकीन, फल, कोल्डड्रिंक्स, चाय सब कुछ मौजूद है।
जब भूषण ने अपने मित्रों-सहयोगियों का यशोधर बाबू से परिचय कराना शुरू किया। तो यशोधर बाबू ने भी आधुनिक तरीकों से ही उन्हें वापिस परिचय दिया। यहाँ भी उन्हें किशनदा की बात याद आई कि आना सब कुछ चाहिए, सीखना हर एक की बात ठहरी, लेकिन अपनी छोड़नी नहीं हुई। टाई-सूट पहनना आना चाहिए लेकिन धोती-कुर्ता अपनी पोशाक है यह नहीं भूलना चाहिए। अब बच्चों ने जब केक काटने का आग्रह किया तो थोड़ी न-नुकुर के बाद केक काटा गया किन्तु जब केक खाने की बात आई तो यशोधर बाबू ने कभी केक में अंडा होने का बहाना बनाया और कभी संध्या न करने का।
यशोधर बाबू ने आज पूजा में कुछ ज़्यादा ही देर लगाई। इतनी देर कि ज़्यादातर मेहमान उठ कर चले जाएँ। शाम की पंद्रह मिनट की पूजा को लगभग पच्चीस मिनट तक खींच लेने के बाद भी जब बैठक से मेहमानों की आवाजें आती सुनाई दी तब यशोधर बाबू पद्मासन साधकर ध्यान लगाने बैठ गए। जन उनकी पत्न्नी उन्हें गुस्सा दिखाते हुए बोली कि क्या आज पूजा में ही बैठे रहोगे। तब यशोधर बाबू आसन से उठे। जब वे आश्वस्त हो गए कि अब सभी रिश्तेदार ही हैं वह उसी लाल गमछे में बैठक में चले गए जिसे पहनकर वह संध्या करने बैठे थे। यह गमछा पहनने की आदत भी उन्हें किशनदा से विरासत में मिली है और उनके बच्चे इसके सख्त खिलाफ हैं। यशोधर बाबू की दृष्टि जब मेज़ पर रखे कुछ पैकेटों पर पड़ी। तो उन्हें लगा कि कोई अपना सामान भूल गया है लेकिन जब उनके बेटे ने कहा कि ये तोफे आपके लिए हैं तो वे शर्माते हुए बोले कि इस उम्र में वे तोफों का क्या करेंगे। तुम सभी खोल लो और इस्तेमाल कर ले। तब भूषण ने सबसे बड़ा पैकेट उठाकर उसे खोलते हुए कहा कि यह तोफा वह उनके लिए लाया है। इसको तो ले लीजिए। इसमें ऊनी ड्रेसिंग गाउन है। जब वे सवेरे दूध लेने जाते हैं तो फटा पुलोवर पहन के चले जाते हैं, वह बहुत ही बुरा लगता है। जब बेटी के आग्रह पर उन्होंने उस गाउन को पहना। तो उनकी आँखों की कोर में जरा-सी नमी चमक गई। लेकिन यह कहना मुश्किल है कि इस समय उन्हें कौन सी बात चुभ गई थी। क्या उन्हें इस बात का बुरा लगा होगा कि उनका बेटा उन्हें गाउन पहनकर दूध लेने जाने को कह रहा है न कि यह कि कल से वह दूध लाने जाएगा वे आराम करे। या उन्हें इस गाउन को पहनकर किशनदा के उस अकेलेपन का एहसास हो रहा था जिसका किशनदा ने अपने आखरी दिनों में किया होगा क्योंकि आज उन्हें अपना पूरा परिवार उन्हें छोड़कर आधुनिक लग रहा था और वे अपने आपको बहुत अकेला महसूस कर रहे थे।