सिद्ध साहित्य की विशेषताएँ और परवर्ती काव्य पर इसका प्रभाव
सिद्ध साहित्य की विशेषताएँ
सिद्ध साहित्य का संबंध बौद्ध धर्म के वज्रयान और सहजयान शाखाओं से है। यह साहित्य 8वीं से 12वीं शताब्दी के बीच विकसित हुआ। सिद्ध कवि साधना, आध्यात्मिक अनुभव, और समाज में व्याप्त कुरीतियों पर तीखा प्रहार करते हुए गूढ़ रहस्यों को प्रतीकों और उलटबासियों के माध्यम से व्यक्त करते थे। इसकी प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
- संधा या उलटबासी शैली:
- सिद्धों की रचनाएँ गूढ़ और प्रतीकात्मक होती थीं। उलटबासी शैली में सतही अर्थ उलट प्रतीत होता है, जबकि गहराई में आध्यात्मिक अर्थ छिपा होता है।
- उदाहरण: “जल में कुमुदी खिले” – सतह पर यह वाक्य असंगत लगता है, लेकिन इसमें आध्यात्मिक गूढ़ार्थ निहित है।
- अंतःसाधना पर जोर:
- बाहरी कर्मकांड और आडंबर को नकारते हुए आत्मा की गहराई में उतरने की साधना पर बल दिया गया।
- रहस्यमार्गीय साधना:
- सिद्ध कवि तांत्रिक साधना और योग के माध्यम से आत्मज्ञान प्राप्त करने में विश्वास रखते थे।
- यह रहस्यवाद प्रतीक और रूपक के माध्यम से व्यक्त होता है।
- वारुणी प्रेरित साधना:
- योग और साधना के लिए मानसिक नियंत्रण और वारुणी (तांत्रिक ऊर्जा) का प्रयोग उल्लेखनीय है।
- लोक विरोध और आडंबरों का खंडन:
- सिद्ध कवि समाज में व्याप्त जातिवाद, धार्मिक कर्मकांड, और पाखंड का तीव्र विरोध करते थे।
- उपदेशात्मक साहित्य:
- सिद्ध साहित्य का मुख्य उद्देश्य जनसामान्य को उपदेश देना और उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान की ओर प्रेरित करना था।
- प्रतीक और विरोधात्मक शैली:
- प्रतीकों जैसे चंद्रमा, सूरज, नदी, नाव आदि का प्रयोग जीवन, आत्मा, और ईश्वर को दर्शाने के लिए किया गया।
- विरोधात्मक प्रतीकों के माध्यम से भौतिकता और सांसारिकता की आलोचना की गई।
परवर्ती काव्य पर सिद्ध साहित्य का प्रभाव
- भक्ति साहित्य पर प्रभाव:
- कबीर जैसे संत कवियों की शैली में सिद्ध साहित्य का प्रभाव स्पष्ट दिखता है।
- संधा भाषा, उलटबासी, कर्मकांड की निंदा, और प्रतीकात्मक शैली कबीर, दादू, रैदास आदि के काव्य में मिलती है।
- कबीर के दोहे और साखियाँ सिद्धों की उलटबासी परंपरा से प्रेरित हैं।
- नाथ साहित्य पर प्रभाव:
- नाथपंथी योगियों की साधना और साहित्य पर सिद्ध साहित्य का गहरा प्रभाव है।
- गोरखनाथ और अन्य नाथ कवियों की रचनाओं में योग और साधना की परंपरा सिद्ध कवियों की ही विरासत है।
- दोहा और गीत शैली का विकास:
- सिद्ध साहित्य में दोहा और गीत जैसी काव्य विधाएँ प्रचलित थीं।
- यही विधाएँ भक्ति काल में विशेष रूप से लोकप्रिय हुईं।
- भक्तिकाल के गूढ़ार्थ और रहस्यवाद:
- संत साहित्य और भक्तिकालीन काव्य में रहस्यमयी प्रतीकों और गूढ़ार्थ की शैली सिद्ध साहित्य से प्रेरित है।
- उदाहरण: “मोको कहाँ ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।” – कबीर की इस पंक्ति में अंतःसाधना का वही स्वरूप है, जो सिद्ध साहित्य में दिखता है।
- सामाजिक आलोचना:
- सिद्ध कवियों की सामाजिक व्यवस्था के प्रति असंतोष और सुधार की भावना भक्तिकाल के संत कवियों में भी परिलक्षित होती है।
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचार
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सिद्ध साहित्य को आदिकाल की प्रामाणिक साहित्यिक सामग्री और भक्ति आंदोलन के लिए प्रेरणा का स्रोत माना है।
- उनके अनुसार, सिद्ध साहित्य की सबसे बड़ी देन यह है कि इसने भक्ति साहित्य को योग, साधना, और रहस्यवाद के आयाम दिए।
- सिद्धों की परंपरा ने भक्ति साहित्य को एक ऐसी गहराई और गंभीरता प्रदान की, जो इसे मानवतावाद और आध्यात्मिकता के ऊँचाइयों तक पहुँचाने में सहायक बनी।
निष्कर्ष
सिद्ध साहित्य अपनी गूढ़ता, प्रतीकात्मकता, और समाज-सुधार की चेतना के कारण न केवल आदिकाल का महत्वपूर्ण साहित्यिक योगदान है, बल्कि इसका प्रभाव भक्ति साहित्य और संत साहित्य की दिशा और दृष्टि को निर्धारित करने में भी महत्वपूर्ण रहा है।