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शिरीष के फूल पाठ का सार (Summary)
“शिरीष के फूल” लेखक हजारी प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा लिखा गया एक निबंध है। इस निबंध में लेखक ने शिरीष के फूल के माध्यम से संदेश दिया है कि जिस तरह शिरीष के फूल आँधी, लू, भयंकर गर्मी आदि विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए भी अपनी कोमलता व सुंदरता को बनाए रहता है, उसी तरह हमें भी अपने जीवन की विपरीत परिस्थितियों में अपने धैर्य व संयम को बनाए रखते हुए अपने जीवन में आगे बढ़ते रहना चाहिए। शिरीष का फूल हमें जीवन में लगातार संधर्ष करने की प्रेरणा देता हैं।
लेखक इस निबंध को जेठ की तपती गर्मी में शिरीष के पेड़ों के एक समूह के बीच बैठ कर लिख रहे हैं जो ऊपर से नीचे तक फूलों से लदे हैं। वैसे तो जेठ की भयंकर गर्मी में बहुत कम फूल ही खिलने की हिम्मत कर पाते हैं। इन फूलों में अमलतास भी शामिल है। किन्तु इसकी तुलना शिरीष के फूलों से है की जा सकती। क्योंकि वह केवल 15 से 20 दिनों के लिए ही खिलता है। जैसे बसंत ऋतू में पलाश का फूल। हालांकि कबीरदास जी को 10-15 दिन के लिए खिलने वाले फूल पसंद नहीं है। परन्तु शिरीष के फूल लम्बे समय तक खिले रहते हैं। वो बसंत के शुरुआत में खिलना प्रारंभ होते हैं और आषाढ़ तक खिले रहते हैं। लेखक ने शिरीष को कालजयी अवधूत कहा है। “कालजयी” अर्थात जिसने काल पर विजय प्राप्त कर ली हो और “अवधूत” यानि एक ऐसा सन्यासी जिसे सुख-दुख, अच्छे-बुरे से कोई फर्क न पड़ता हो। जिसके भाव हर परिस्थिति में एक समान रहते हों। यही सब लक्षण शिरीष के फूल में भी हैं जिस कारण लेखक ने शिरीष के फूल को कालजयी अवधूत कहा है। क्योंकि शिरीष का फूल भयंकर गरमी, उमस, लू आदि के बीच सरस रहता है। वसंत में वह लहक उठता है तथा भादों मास तक फलता-फूलता रहता है। उस पर ना भयंकर गर्मी का असर दिखाई देता है और ना ही तेज बारिश का कोई प्रभाव। वह काल व समय को जीतकर एक सामान लहलहाता रहता है। यह हमें विषम परिस्थितयों में भी प्रसन्नता व मस्ती के साथ जीवन जीने की कला सिखाता हैं।
शिरीष के वृक्ष बड़े और छायादार होते हैं और पुराने समय में इन वृक्षों को मंगल कारक मानकर इन्हें बाग़ -बगीचों में लगाया जाता था। वात्स्यायन कहते हैं कि बगीचे में घने व छायादार वृक्षों और बकुल के पेड़ों में ही झूला लगाना चाहिए। लेकिन लेखक मानते हैं कि शिरीष के पेड़ भी झूला झूलने के लिए प्रयोग में लाए जा सकते है। भले ही शिरीष के पेड़ की डालें कुछ कमजोर होती हैं। इसीलिए उसे झूला झूलने योग्य नही समझा जाता। परन्तु लेखक कहते हैं कि शिरीष के पेड़ भी झूला झूलने के लिए प्रयोग में किए जा सकते है क्योंकि झूला झूलने वालों अर्थात बच्चे व् किशोरियों का वजन भी तो ज़्यादा नहीं होता।
शिरीष के फूल को संस्कृत साहित्य में बहुत ही कोमल माना गया है। यहाँ तक की कालिदास तो यह कह गए हैं कि शिरीष के फूल केवल भौंरों के पैरों का दबाव ही सहन कर सकते हैं पक्षियों के पैरों का दबाव वे सहन नहीं कर सकते। लेखक यहाँ महाकवि कालिदास की इस बात का न तो विरोद्ध करना चाहता है और न ही लेखक की कुछ ऐसी इच्छा भी है। परन्तु लेखक कहता है कि महाकवि कालिदास की इस बात से दूसरे कवियों ने यह समझ लिया कि शिरीष के पेड़ का सब कुछ ही कोमल है जबकि इसके फल बहुत मजबूत होते हैं। इसके फल इतनी मजबूती से अपने स्थान पर या डालियों पर चिपके रहते हैं कि नए फलों के आने पर भी वो अपना स्थान आसानी से नहीं छोड़ते हैं। वो अपना स्थान तभी छोड़ते हैं जब नए पत्तों व् फूलों द्वारा उन्हें जबरदस्ती धकेला जाता है। नहीं तो सूखकर भी वो डालियों में ही खड़खड़ाते रहते हैं। इन पुराने फलों को देखकर लेखक को उन नेताओं की याद आ जाती है जो बदलते समय की परस्थितियों को नहीं पहचानते और अपने पद को तब तक नहीं छोड़ते, जब तक उन्हें नयी पीढ़ी के नेता जबरदस्ती धक्का मारकर पद छोड़ने को विवश ना कर दें।
यहाँ कहते हैं कि पुरानी पीढ़ी को समय रहते ही अपने अधिकार करने के लोभ को छोड़ देना चाहिए और नई पीढ़ी के लिए स्थान बनाना चाहिए। लेखक मानते हैं कि वृद्धावस्था और मृत्यु, इस जगत के सत्य है और शिरीष के फलों को भी यह समझना जाना चाहिए कि जब वह फूला है तो उसका झडना भी निश्चित है। परंतु सुनता कोई नहीं। मृत्यु के देवता निरंतर कोड़े चला रहे हैं उसमें जर्जर व् कमजोर समाप्त हो जाते हैं। और जिसमें प्राणकंण थोड़ा भी विपरीत है वे बच जाते हैं। जीवनधारा व सब कुछ अपने में विलीन करने वाले समय के बीच संघर्ष चालू है। लेखक शिरीष के फलों को मुर्ख मानते हुए कहते हैं कि वे समझते हैं कि एक ही जगह पर बिना हिले-डुले रहने से मृत्यु के देवता से बचा जा सकता है जबकि हिलने -डुलने वाले कुछ समय के लिए तो बच सकते हैं पर झड़ते ही मृत्यु निश्चित है।
लेखक शिरीष को एक सन्यासी की तरह मानता है क्योंकि सन्यासी की ही तरह न तो उसे सुख की चिंता है और न ही दुःख की, उसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। जब भयंकर गर्मी से आसमान और धरती दोनों जल रहे होते हैं तब भी न जाने कहाँ से शिरीष का फूल अपने लिए जीवन रस ढूंढ ही लेता है। वह दिन के आठों पहर अपनी ही मस्ती में मस्त रहता है। एक वनस्पति शास्त्री ने लेखक को बताया कि यह वायुमंडल से अपना रस खींचता है और लेखक को भी यह बात सही लगती है क्योंकि तभी तो भयंकर गर्मी व लू में भी यह ऐसे मीठे केसर उगा सकता है और किसी सन्यासी की भाँति अपना अस्तित्व बनाये रखता है।
लेखक कबीरदास को भी शिरीष के ही सामान मस्त, बेपरवाह, सरस व् मादक मानते हैं। कालीदास जी को भी लेखक उसी श्रेणी के कवि मानते हैं। यहाँ पर लेखक कहते हैं कि इसी तरह कवि भी सिर्फ उनको ही माना जा सकता हैं जो स्थिरप्रज व अनासक्त योगी हो और शिरीष की भांति ही फक्क्ड़ हो। कर्नाट राज की प्रिया अर्थात रानी विज्जिका देवी ने केवल ब्रह्मा जिन्होंने वेदों की रचना की , बाल्मीकि जिन्होंने रामायण को रचा और व्यास जी जिन्होंने महाभारत की रचना की, इन तीनों को ही कवि माना हैं। लेखक का मानना है कि जिसे कवि बनना है उसे अनासक्त योगी व फक्कड़ बनने की जरूरत है। कालिदास भी किसी अनासक्त योगी की तरह शांत मन और चतुर प्रेमी थे। उनका एक-एक श्लोक मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। लेखक मानते हैं कि सिर्फ शब्द लिखने और तुकबंदी करने को कविता नही कह सकते हैं। क्योंकि शब्द तो लेखक भी लिख सकता है और तुकबंदी भी कर सकता है। इसका अर्थ यह नहीं की वह भी कालिदास बन सकता है। कालिदास ने शकुंतला के सौंदर्य का वर्णन किया हैं। परन्तु लेखक मानता है कि वास्तव में वो शकुंतला का सौंदर्य नहीं बल्कि कालिदास के ह्रदय की सुंदरता हैं। लेखक कहते हैं कि राजा दुष्यंत ने भी शकुंतला का चित्र बनाया लेकिन उन्हें उस चित्र में हर बार कुछ ना कुछ कमी महसूस होती थी। बहुत देर बाद उन्हें समझ में आया कि वो शकुंतला के कानों में शिरीष का फूल लगाना ही भूल गए। कालिदास सौंदर्य के बाहरी कवर आवरण को भेदकर उसके भीतर पहुंचने में समर्थ थे। वो सुख-दुख दोनों में भाव रस खींच लिया करते थे। ऐसी प्रकृति सुमित्रानंदन पंत व रवींद्र नाथ टैगोर में भी थी।
शिरीष का पेड़ पक्के सन्यासी की तरह लेखक के मन में भावों की तरंगों को उठा देता है जो आग उगलती गर्मी में भी अपना अस्तित्व बनाये रखता है। लेखक कहते हैं कि आज देश में चारों ओर मारकाट, आगजनी, लूटपाट आदि का बवंडर छाया है। ऐसे में क्या स्थिर रहा जा सकता है। शिरीष रह सकता है। गांधीजी भी रह सके हैं। यहाँ पर लेखक ने गांधीजी को एक ऐसे सन्यासी के रूप में याद किया हैं जिसने देह बल के ऊपर आत्मबल को सिद्ध किया है। यानि शाररिक रूप से बेहद कमजोर गांधी जी ने अपने आत्मबल के सहारे अंग्रेजों के खिलाफ कई बड़े आंदोलन सफलतापूर्वक चलाये और देश को आजादी दिलाने में अहम् भूमिका अदा की। इसीलिए लेखक जब शिरीष की ओर देखते है तो उनके मन में एक हूक उठती है। हाय वह अवधूत आज कहां है? यानि आज देश में न गांधीजी हैं और न ही उनके जीवन मूल्यों को मानने वाले लोग।