ये आँखे – सुमित्रानंदन पंत कक्षा 11 हिन्दी पद्य खंड

वे आँखें

अंधकार की गुहा सरीखी उन आँखों से डरता है मन, भरा दूर तक उनमें दारुण दैन्य दुख का नीरव रोदना

वह स्वाधीन किसान रहा,

अभिमान भरा आँखों में इसका, छोड़ उसे मँझधार आज

संसार कगार सदृश वह खिसका!

लहराते वे खेत हगों में

हुआ बेदखल वह अब जिनसे, हँसती थी उसके जीवन की हरियाली जिनके तृन-तृन

आँखों ही में घूमा करता

वह उसकी आँखों का तारा, कारकुनों की लाठी से जो गया जवानी ही में मारा !

बिका दिया घर द्वार

महाजन ने न ब्याज की कौड़ी छोड़ी, रह-रह आँखों में चुभती वह कुर्क हुई बरधों की जोड़ी!

उजरी उसके सिवा किसे कब पास दुहाने आने देती? अह. आँखों में नाचा करती उजड़ गई जो सुख की खेती !

बिना दवा दर्पन के घरनी स्वरग चली, आँखें आती भर देख-रेख के बिना दुधमुंही बिटिया दो दिन बाद गई मरा

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132/ आरोह

घर में विधवा रही पतोहू, लछमी थी, यद्यपि पति घातिन, पकड़ मँगाया कोतवाल ने, डूब कुएँ में मरी एक दिन

खैर, पैर की जूती, जोरू

न सही एक दूसरी आती, पर जवान लड़के की सुध कर साँप लोटते, फटती छाती।

पिछले सुख की स्मृति आँखों में क्षण भर एक चमक है लाती, तुरंत शून्य में गड़ वह चितवन

तीखी नोक सदृश बन जाती।