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काले मेघा पानी दे पाठ का सार (Summary)
यहाँ प्रस्तुत संस्मरण काले मेघा पानी दे में लोक-प्रचलित विश्वास और विज्ञान के संघर्ष का सुंदर चित्रण है। एक तरफ विज्ञान का अपना तर्क है और विश्वास का अपना सामर्थ्य। इसमें कौन कितना सार्थक है, यह प्रश्न पढ़े-लिखे समाज को अशांत करता रहता है। कहने है आशय यह है कि पढ़े-लिखे समाज में भी अक्सर इस बात पर चर्चा होती रहती है कि कौन अधिक सार्थक है। इसी दुविधा को लेकर लेखक ने पानी के संदर्भ में इस प्रसंग को रचा है। आषाढ़ के पहले दस दिन बीत जाने के बाद भी यदि खेती और अन्य आवश्यक प्रयोग के लिए पानी न हो तो जीवन चुनौतियों से भर जाता है और अगर उन चुनौतियों का हल विज्ञान के द्वारा भी न हो पाए तो उत्सवधर्मी भारतीय समाज अर्थात धार्मिक लोग चुप नहीं बैठते। वह किसी न किसी तरह जुगाड़ लगाने लग जाता है, वह सभी ऐसे कार्य या बात जो वास्तविक या सत्य न होने पर भी सत्य और ठीक लगे, बिना सोचे-समझे करता है और हर कीमत पर जीवित रहने के लिए अशिक्षा और बेबसी के भीतर से उपाय और कठिनाइयों की काट की खोज करता है।
संस्मरण की शरुवात ने धर्मवीर भारती जी कहते हैं कि गाँव में बच्चों की एक मंडली हुआ करती थी जिसमें 10-12 से लेकर 16-18 साल के लड़के होते थे। ये बच्चे अपने शरीर पर सिर्फ एक लंगोटी या जांगिया पहने रहते थे। लोगों ने इस मंडली के दो बिलकुल विपरीत नाम रखे हुए थे – इन्द्रसेना और मेंढक मंडली। जो लोग उनके नग्नस्वरूप शरीर, उनकी उछलकूद, उनके शोर-शराबे और उनके कारण गली में होने वाले कीचड़ से चिढ़ते थे, वे उन्हें अक्सर मेढक-मंडली कहते थे। और जो लोग यह मानते थे कि इस मंडली पर पानी फेंकने से बारिश हो जाएगी। वो इस मंडली को “इंद्र सेना” कहा करते थे। जब गर्मी बहुत अधिक बढ़ जाती थी और पानी की कमी हर जगह होने लगती थी और आसमान में दूर-दूर तक कही बादल दिखाई नहीं देते थे। तब ये बच्चे एक जगह इकट्ठा होकर जयकारा लगाते थे “बोल गंगा मैया की जय।” जयकारा सुनते ही लोग सावधान हो जाते थे। “काले मेघा पानी दे, गगरी फूटी बैल पियासा, पानी दे, गुड़धानी दे, काले मेघा पानी दे।” लोकगीत गाते हुए गाँव की गलियों में धूमा करते थे। इस लोकगीत को सुनकर महिलाएं व लड़कियाँ घरों की खिड़कियों से झांकने लगती थी। यह मंडली “पानी दे मैया , इंदर सेना आयी हैं….” कहते हुए अचानक गली के किसी मकान के सामने रुक जाती, तो उस घर के लोग बाल्टी भर पानी उस मंडली के ऊपर फेंका देते थे।
जब जेठ का महीना बीत जाता और आषाढ़ भी आधा गुजर जाता मगर फिर भी बारिश नहीं होती तब गांवों व शहरों में सूखे के से हालत हो जाते हैं। मिट्टी इतनी सुखी हो जाती है कि जमीन भी फटने लगती है। इंसान व जानवर पानी के बैगर तड़प-तड़प कर मरने लगते मगर फिर भी आसमान में बादलों का कही कोई निशान तक दिखाई नहीं देता। और विज्ञान भी उनकी इसमें कोई मदद नहीं कर पाता तब ऐसे मुश्किल हालातों में लोग अपने-अपने क्षेत्रों में प्रचलित लोक विश्वासों जैसे पूजा पाठ, हवन-यज्ञ आदि के सहारे भगवान इंद्र से प्रार्थना कर वर्षा की उम्मीद लगाने लगाते थे। जब यह सब कुछ करने के बाद भी केवल हार ही नसीब होती हैं तो फिर अंत में इंदर सेना को बुलाया जाता था।
इंद्र सेना, भगवान इंद्र से वर्षा की प्रार्थना करती हुई, गीत गाती हुई पूरे गांव में निकलती थी। उस समय लेखक को भी पानी मिलने की आशा में यह सब कुछ करना ठीक लगता था। परंतु एक बात लेखक की समझ में नहीं आती थी कि जब चारों ओर पानी की इतनी अधिक कमी है कि जानवर और इंसान, दोनों ही पानी के लिए परेशान हो रहे हैं तो फिर भी मुश्किल से इकट्ठा किया हुआ पानी लोग इंद्रसेना पर डाल कर उसे क्यों बर्बाद करते हैं। लेखक को यह सब सरासर अंधविश्वास लगता था और उनको लगता था कि इस तरह के अन्धविश्वास देश को न जाने कितना नुकसान पहुंचा रहे हैं। लेखक के अनुसार तो यह इंद्र सेना नही बल्कि पाखंड हैं। ऐसा लेखक इसलिए कहते हैं क्योंकि अगर यह इंद्र सेना, सच में इंद्र महाराज से पानी दिलवा सकती तो, क्या वो पहले अपने लिए पानी नहीं मांग लेती। लेखक मानते हैं कि इस तरह के अंधविश्वास के कारण ही तो हम अंग्रेजों से पिछड़ गए और उनके गुलाम हो गये।
लेखक अपने बारे में बताते हुए कहते हैं कि वो भी उस समय लगभग इंद्र सेना में शामिल होने वाले बच्चों की ही उम्र के थे। वे बचपन से ही आर्य समाजी संस्कार से प्रभावित थे। वो उस समय “कुमार सुधार सभा” के उपमंत्री भी थे। जिसका कार्य समाज में सुधार करना व अंधविश्वास को दूर करना था। हालाँकि लेखक बताते हैं कि हमेशा अपनी वैज्ञानिक सोच के आधार पर वे अंधविश्वासों के तर्क ढूंढते रहते थे। फिर भी वो इस बात को स्वीकार करते हैं कि उन्होंने भी ऐसे कई रीति-रिवाजों को अपनाया जो उन्हें उनकी जीजी ने अपनाने को कहा था। लेखक कहते हैं कि उन्हें सबसे अधिक प्यार उनकी जीजी से ही मिला। वो रिश्ते में लेखक की कुछ भी नहीं लगती थी। और वो उम्र में लेखक की माँ से भी बड़ी थी लेकिन वो अपने परिवार वालों से पहले लेखक को मानती थी और हर पूजा-पाठ, तीज त्यौहार आदि में बुलाया करती थी और सारा काम लेखक के हाथों से ही करवाया करती थी। ताकि लेखक को उसका पुण्य मिल सके। और लेखक उनकी हर बात मानते थे। परन्तु इस बार जब जीजी ने लेखक से इंद्रसेना पर पानी फेंकने को कहा तो, लेखक ने बिलकुल साफ मना कर दिया। लेकिन जीजी ने खुद ही बाल्टी भर पानी ले कर आई जिसे उठाने में उन्हें बहुत दिक्क्त भी आ रही थी परन्तु फिर भी लेखक ने उनकी मदद नहीं की और जीजी ने खुद ही इंद्रसेना के ऊपर पानी फेंक दिया जिसे देखकर लेखक नाराज हो गए। लेखक को मनाते हुए जीजी ने उन्हें बड़े प्यार से समझाया कि यह पानी की बर्बादी नहीं है। बल्कि यह तो पानी का अर्क है जो हम इंद्रसेना के माध्यम से इंद्रदेव पर चढ़ाते हैं। ताकि वे प्रसन्न हो कर हम पर पानी की बरसात करें। फिर उन्होंने कहा कि जो चीज इंसान पाना चाहता है, यदि पहले उस चीज़ को देगा नहीं तो पाएगा कैसे। इसके लिए जीजी ऋषि-मुनियों के दान को सबसे ऊंचा स्थान दिए जाने को प्रमाणस्वरूप बताती है। इस पर लेखक कहते हैं कि ऋषि-मुनियों को क्यों बदनाम करती हो जीजी। जब आदमी पानी की एक-एक बूँद के लिए परेशान है, तब पानी को इस तरह बहाना सही है क्या? इस पर जीजी थोड़ी देर चुप रही। फिर उन्होंने कहा कि देखो भैय्या बिना त्याग के दान नहीं होता। अगर तुम्हारे पास करोड़ो रुपए हैं और तुमने उसमें से कुछ रूपये दान कर दिए तो, वो दान नहीं हैं। दान तो वह है जब किसी के पास कोई चीज बहुत कम है और उसे उसकी जरुरत भी है। फिर भी वह उस वस्तु का दान कर रहा है। तो उसको उस दान का फल मिलता है। लेखक उनकी बात काटते हुए कहते हैं कि यह सब अंधविश्वास है और वह इस बात को नहीं मानता।
जीजी ने फिर लेखक को समझाते हुए कहा कि तू पढ़ा-लिखा है मगर वह पढ़ी-लिखी नहीं हूँ। लेकिन वह इस बात को अपने अनुभव से जानती है कि जब किसान 30-40 मन गेहूँ उगना चाहता हैं तो वह 5-6 सेर अच्छा गेहूं जमीन में क्यारियाँ बनाकर उसमें फेंक देता है। और वह इस तरह गेहूँ की बुवाई करता है।बस हम भी तो इन्द्रसेना पर पानी फ़ेंक कर पानी की बुवाई ही कर रहे हैं। जब हम यह पानी गली में बोयेंगे, तब तो शहर, कस्बे और गाँव में पानी वाले बादलों की फसल आएगी। हम बीज बनाकर पानी देते हैं फिर काले मेघा से पानी मांगते हैं।
जीजी फिर लेखक को समझाते हुए कहती हैं कि सब ऋषि मुनि कह गए, पहले खुद दो, तब देवता तुम्हें चौगुना-आठगुना कर लौटाऐंगे। “यथा राजा तथा प्रजा” , सिर्फ यही सही नहीं है। सच यह भी हैं “यथा प्रजा तथा राजा” अर्थात जैसी प्रजा होगी वैसा ही राजा का व्यवहार भी होगा। और यही बात गांधीजी भी कहते थे।
लेखक और जीजी की इन बातों को आज 50 साल पूरे होने को आए हैं। लेकिन आज भी लेखक के द्वारा उठाए हुए प्रश्न उतने ही प्रासंगिक है जितने तब थे। उन्होंने कहा कि हम अपने देश के लिए करते क्या हैं ? क्योंकि हमारी मांगें तो हर क्षेत्र में बड़ी-बड़ी है पर त्याग का कहीं कोई नाम भी नहीं है। अपना स्वार्थ साधना ही एकमात्र लक्ष्य रह गया है। हम खूब मज़े ले लेकर लोगों की भ्रष्टाचार की बातें तो खूब करते हैं लेकिन क्या हम खुद उसी भ्रष्टाचार के अंग तो नहीं बन रहे है। लेखक अपने संस्करण के अंत में कहते हैं कि “बादल आते हैं पानी बरसता है लेकिन बैल प्यासे के प्यासे और गगरी फूटी की फूटी रहती हैं। आखिर यह स्थिति कब बदलेगी ”। लेखक की यह पंक्ति हमारी समाजिक व्यवस्था पर एक व्यंग्य है। क्योंकि हमारे देश में हर वर्ष हजारों योजनाएं बनाती हैं। लेकिन इन योजनाओं का लाभ उस वर्ग को कभी नहीं मिलता जो उसके हकदार हैं। हर समय विकास की बातें तो बहुत की जाती हैं मगर यह विकास सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह जाता हैं। इसीलिए लेखक कहते हैं कि “बरसात होने के बाद भी बैल प्यासा रह जाता हैं और गगरी फूट जाती हैं।”