पद 1
हम लौ एक एक करि जाना।
दौड़ कहूँ तिनहीं को दोजग जिन नाहिन पहिचानां || एकै पवन एक ही पानी एकै जोति समाना। एकै खाक गढ़े सब भांडै एकै कोहरा सांनां ।। जैसे बाढ़ी काष्ट ही काटै अगिनि न काटै कोई। सब घटि अंतरि तूही व्यापक धरै सरुपै सोई।। माया देखि के जगत लुभानां काहे रे नर गरबांनां । निरमै भया कछू नहि ब्यापै कहै कबीर दिवाना ।।
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पद 2
संतों देखत जग बौराना ।
साँच कहाँ तो मारन धावै झूठे जग पतियाना।। नेमी देखा धरमी देखा, प्रात करै असनाना। आतम मारि पखानहि पूजै, उनमें कछु नहिं जाना ।। बहुतक देखा पीर औलिया, पढ़ें कितेब कुराना। के मुरीद तदबीर बतावें, उनमें उन्हें जो जाना ।। आसन मारि डिंभ पर बैठे, मन में बहुत गुमाना। पीपर पाथर पूजन लागे, तीरथ गर्व भुलाना।। टोपी पहिरे माला पहिरे, छाप तिलक अनुमाना।
120/ आरोह
साखी सब्दहि गावत भूले, आतम खबरि न जाना। हिन्दू कहै मोहि राम पियारा, तुर्क कह रहिमाना । आपस में दोउ लरि परि म्ए, मर्म न काहू जाना ।। घर घर मन्तर देत फिरत हैं, महिमा के अभिमाना। गुरु के सहित सिख्य सब बड़े अंत काल पछिताना | कहै कबीर सुनो हो संतो, ई सब भर्म भुलाना | केतिक कहाँ कहा नहि मार्ने, सहजै सहज समाना।।