रैदास या रविदास
रैदास (रविदास) रामानन्द की शिष्य परम्परा और कबीर के समकालीन कवि थे। रैदास का
जन्म सन् 1299 ई. में काशी में माघ पूर्णिमा दिन रविवार को संवत 1433 को हुआ था उनका एक दोहा प्रचलित है।
चौदह से तैंतीस कि माघ सुदी पन्दरास।
दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास।
उनके पिता संतोख दास तथा माता का नाम कलसांं देवी था। उनकी पत्नी का नाम लोना देवी बताया जाता है।
इन्होंने स्वंय अपनी जाति का उल्लेख किया है-
“कह रैदास खलास चमारा”
संत रैदास पढे लिखे नहीं थे। इन्होंने प्रयाग, मथुरा, वृंदावन, भरतपुर, चितौड आदि स्थानों का भ्रमण कर निर्गुण ब्रम्ह का जनसाधारण की भाषामें प्रचार-प्रसार किया। चित्तौड़ की रानी और मीराँबाई
इनकी शिष्या थी।
रैदास में संतों की सहजता, निस्पृहता, उदारता, विश्वप्रेम, दृढ विश्वास और सात्विक जीवन के भाव इनकी रचनाओं में मिलते है।
इनकी रचनाएँ संतमन की, विभिन्न संग्रहों में संकलित मिलती है। इनके फुटकर पद ‘बानी’ के नाम से ‘संतबानी सीरीज’ में संग्रहित मिलते है। इनके ” आदि गुरु ग्रंथ साहिब” में लगभग चालीस पद मिलते हैं। इन्होंने संत कबीर के समान मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा आदि बाह्यआडंबरो का विरोध किया है। कुछ पद नीचे उद्धत है-
“तीरथ बरत न करौ अंदेशा । तुम्हारे चरण कमल भरोसा ।।
जहँ तहँ जाओ तुम्हरी पूजा । तुमसा देव और नहीं दूजा ।।”
संत रैदास ने जति-प्रथा पर भी प्रहार किया है अपने अपमान और ओछे पन को लेकर उन्होंने
लिखा है-
‘जाती ओछा पाती ओछा, ओछा जनमुहमारा ।
राम राज की सेवा कीन्हीं, कहि रविदास चमारा।
संत रैदास ने तत्कालीन जातिवर्णगन भेद भाव को भी वर्णित करते है-
‘जाके कुटुंब सब ढोर दोवंत
फिरही अजहूँ बनारसी आसपास
आचार सहित विप्र करहीं डंडडति
तिन वनै रविदास दासानुदास।।’
अपने भावों, और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए सरल व्यावहारिक ब्रजभाषा को अपनाया है जिसमें अवधी, राजस्थानी खड़ी बोली का प्रयोग किया है। साथ ही इनमें कहीं-कहीं उर्दू, फारसी के शब्दों का भी मिश्रण मिलता है।
संत रविदास जी ने स्वामी रामानंद जी को कबीर साहेब जी के कहने पर गुरु बनाया था, जबकि उनके वास्तविक आध्यात्मिक गुरु कबीर साहेब जी ही थे।
रैदास की वाणी भक्ति की सच्ची भावना, समाज के व्यापक हित की कामना तथा मानव प्रेम से ओत-प्रोत होती थी। इसलिए उसका श्रोताओं के मन पर गहरा प्रभाव पड़ता था। उनके भजनों तथा उपदेशों से लोगों को ऐसी शिक्षा मिलती थी जिससे उनकी शंकाओं का सन्तोषजनक समाधान हो जाता था और लोग स्वतः उनके अनुयायी बन जाते थे।