महर्षि दधीचिः कक्षा 8 संस्कृत पाठ 12

महर्षि दधीचिः कक्षा 8 संस्कृत पाठ 12

भारतीया संस्कृतिः सर्वश्रेष्ठाः संस्कृतिः अस्ति । दानं, दया, समता परोपकारः इत्यादयो गुणाः भारतीयसंस्कृतेः अङ्गानि सन्ति । स्वार्थं परित्यज्य परोपकारार्थं जीवनसमर्पणेन अनेके मुनयः महर्षयः राजानः सामान्यनागरिकाश्च भारतीय संस्कृतिम् अरक्षन् अतएव ते सादरं स्मर्यन्ते । अतिथिरक्षायै करस्थं स्थालं प्रयच्छन् राजर्षिरन्ति- देवः कपोतरक्षायै स्वदेहमासं ददानो महाराजः शिविः देवरक्षायै स्वशरीरया स्थीनि प्रयच्छन् महर्षि दधीचिश्चेतादृशा एवं श्रद्धेयाः स्मरणीयाः महापुरुषाः सन्ति ।

शब्दार्था:- स्मर्यन्ते = स्मरण करते हैं। करस्थं =हाथ में स्थित। स्थालं = थाली को । ददानो = देते हुए। विमुच्य= छोड़कर।

अनुवाद – भारतीय संस्कृति सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है। दान, दया, समता परोपकार इत्यादि गुण भारतीय संस्कृति के अङ्ग हैं। स्वार्थ का त्याग करके परोपकार के लिये जीवन समर्पित करने वाले अनेक मुनि, महर्षि, राजा और सामान्य नागरिक भारतीय संस्कृति में हुए। इसलिए इन्हें आदरपूर्वक स्मरण करते हैं। अतिथि रक्षा के लिये हाथ में थाली को देते हुए राजर्षि रन्ति देव, कबूतर की रक्षा के लिये अपने शरीर का मांस देते हुए महाराज शीवि, देवताओं की रक्षा के लिये अपने शरीर की अस्थियों को प्रदान करते हुए महर्षि दधिचि आदि श्रद्धेय महापुरुष स्मरण करने योग्य हैं।

महर्षे दधीचेः नाम सर्वेषु परोपकारिषु महापुरुषेषु अग्रगण्यः मन्यते । देवराजेन्द्रस्य परीक्षायामुत्तीर्णो रन्तिदेवः शिविश्च उभौ अपि अन्ते देहवन्तौ जीवितौ आस्ताम् । किन्तु दधीचिस्तु सर्वकालाय देहं विमुच्य यशः शरीरो अभवत्। वस्तुतः तत्समस्त्यागी न भूतो न भविष्यति ।

शब्दार्था:- उपगम्य = पास जाकर। सकलां = समस्त वज्र = कठोर। देहं= शरीर

अनुवाद-महर्षि दधीचि का नाम सभी परेपकारी महापुरुषों .में अग्र गणनी माना जाता है। देवराज इन्द्र की परीक्षा में उत्तीर्ण रन्तिदेव एवं राजा शिवि दोनों भी शरीरधारी और जीवित थे। किन्तु दधीचि तो अपने देह का त्याग कर हमेशा के लिए यश रूपी शरीर वाले हो गये। वस्तुतः दधीचि के समान त्यागी न कभी कोई हुआ है न कभी कोई होगा।

प्राचीनकाले कदाचिद् देवानां दानवानां च भयङ्कर- संग्रामोऽभूत्। तस्मिन सङ्ग्रामे देवानां नायकः इन्द्रः दानवानां महर्षिः दधीचिः नायकश्च वृत्रासुरः आसीत्। वृत्रासुरेण सह संघर्षे देवनायकः इन्द्रः पराजितः इन्द्रस्यादेशेन पराजिताः देवाः देवरक्षकं भगवन्तं विष्णुम् अगम्य स्वरक्षायै प्रार्थयन् । प्रार्थनां श्रुत्वा प्रसन्नो भगवान् विष्णुः अब्रवीत् यत् वरं ब्रुवत देवाः अब्रुवन्-भगवन् ! दानवानां नायको वृत्रासुरः देवराजस्य इन्द्रस्य सकलां देवसेनां पराजयत स दानवराजोऽस्माकं सर्वाणि शस्त्राणि अपि अनश्यत्। भवान् अस्मान् रक्षतु ।

शब्दार्था:- संग्राम =युद्ध। विमच्य =छोड़कर। उपगम्य = पास जाकर। सकलां =समस्त ।

अनुवाद- प्राचीन काल में एक बार देव-दानवों का भयङ्कर युद्ध हुआ। उस युद्ध में देवताओं के नायक इन्द्र और दानवों के नायक वृत्रासुर थे। वृत्रासुर के इस संघर्ष में देवनायक इन्द्र हार गये। तब इन्द्र के आदेश से पराजित देवता अपने रक्षक भगवान विष्णु के पास जाकर अपनी रक्षा हेतु प्रार्थना करने लगे। प्रार्थना को सुनकर प्रसन्न भगवान विष्णु बोले-ठीक है। तब देवताओं ने कहा- भगवन! दानवों के नायक वृत्रासुर न देवराज इन्द्र की समस्त सेना को पराजित कर दिया है। उस दानव राज ने हमारे सभी शस्त्रों को भी नष्ट कर दिया है। आप हमारी रक्षा कीजिए।

भगवान् विष्णुः उवाच भो देवाः ! इदानीं महर्षि दधीचिः सर्वेषाम् ऋषीणाम् शिरोमणिः वर्तते । व्रतोपवासैः तपसा च तस्य महात्मनो देहः पावनः सम्पन्नः । तस्य देहस्य अस्थिभिः यदि वज्रस्य निर्माणं भवेत् तर्हि तेन वज्रेण वृत्रासुरस्य वधः संभवोऽस्ति । अतः सत्वरं गत्वा तं महर्षि तद्देहं याचत । स ऋषिधर्मस्य मर्मज्ञो वर्तते। ऋषयः खलु परोपकारिणो भवन्ति । सः परोपकारार्थं अवश्यं स्वदेहं दास्यति ।

शब्दार्था:- उपगम्य = पास जाकर। सकलां = समस्त शिरोमणि श्रेष्ठ या प्रमुख ।मर्मज्ञ = विशेषज्ञ या मर्म को जानने वाला।

अनुवाद – भगवान विष्णु बोले हे देवताओं! अभी महर्षि दधीचि सभी ऋषियों में श्रेष्ठ हैं। व्रत और तपस्या के कारण उस महात्मा का देह अत्यंत पवित्र हो गया है। उसके शरीर की हड्डियों से यदि वज्र का निर्माण होता है, तो उस वज्र से वृत्रासुर का वध संभव है। इसलिए शीघ्र जाकर उस महर्षि के शरीर की याचना करो वह ऋषि धर्म का विशेषज्ञ है। ऋषि लोग निश्चित ही परोपकारी होते हैं। इसलिए वे भी परोपकार के लिए अपना शरीर अवश्य दे देंगे।

भगवतो विष्णोः आदेशेन देवा: महर्षेः दधीचेः समीपं गतवन्तः । तत्र गत्वा ते वृत्रासुरस्य अत्याचारं वर्णयित्वा तद्वधाय महर्षेः देहम् अयाचन् । दधीचि उवाच – भो देवाः ! यो नरः शरीरं क्षणभङ्गुरं मत्वा अपि सनातनस्य धर्मस्य पालनं न करोति, स सर्वदा निन्दनीयो भवति। नदी वृक्षादयो जड़पदार्था अपि तं स्वार्थिनं निन्दन्ति । यः खलु प्राणिनां शोके शोकं, हर्षेहर्षं च अनुभवति स एव प्रशंसनीयो भवति। अतः देवकार्याय शरीरं मुञ्चतो लेशतोऽपि व्यथा न भविष्यति ।

शब्दार्था:- :- क्षणभङ्गुरम् = नाशवान। मुञ्चतो = छोड़ते हुए। लेशतोऽपि = थोड़ा भी ।

अनुवाद – भगवान विष्णु के आदेश से सभी देवता महर्षि दधीचि के समीप गये। वहाँ जाकर उन्होंने वृत्रासुर के अत्याचार का वर्णन करके उसके वध के लिये महर्षि के शरीर की याचना की। दधीचि ने कहा- हे देवताओं ! जो मनुष्य शरीर को नाशवान मानकर भी सनातन धर्म का पालन नहीं करता, वह हमेशा निन्दनीय होता है। नदी, वृक्ष आदि जड़ पदार्थ भी उस स्वार्थी की निन्दा करते हैं। जो प्राणियों के शोक में शोकाकुल, हर्ष में हर्षयुक्त होता है। वह प्रशंसनीय होता है। इसलिये देवताओं के कार्य के लिये अपना शरीर त्यागते हुए मुझे थोड़ा भी कष्ट नहीं होगा।

एवमुक्त्वा महर्षिः दधीचिः भगवन्तं ध्यायन् स्वदेहम् अत्यजत् । देवशिल्पी विश्वकर्मा तैः अस्थिभिः वज्रस्य निर्माणम् अकरोत् । तेन वज्रेण देवराज इन्द्रो वृत्रासुरस्य वधं चकार । एतेन महता त्यागमहिमाभ्यां महर्षिः दधीचिः अद्यापि सादरं सम्मानयते, यशः शरीरेण च अद्यापि जीवति । ‘परोपकाराय सतां विभूतयः

शब्दार्थाः चकार = किया। अद्य= आज। अपि = भी।

अनुवाद – ऐसा कहकर महर्षि दधीचि ने भगवान का ध्यान करते हुए अपने देह को त्याग दिया। देवशिल्पी विश्वकर्मा ने उन अस्थियों से वज्र का निर्माण किया। उस वज्र से देवराज इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया। इस महान त्याग और महिमा के कारण महर्षि दधीचि आज भी आदरणीय माने जाते हैं। वे यश रूपी शरीर से आज भी जीवित हैं। ‘परोपकार के लिए ही सत्पुरुष होते हैं।”

अभ्यास प्रश्नाः

(क) परोपकारेषु कस्य नाम अग्रगण्यं मन्यते ?

(परोपकार में किसका नाम अग्रगण्य माना जाता है ?)

उत्तर- परोपकारेषु महर्षेः दधीचेः नामः अग्रगण्यं मन्यते।

(परोपकार में महर्षि दधीचि का नाम अग्रगण्य माना जाता है।)

(ख) दानवानां नायकः कः आसीत् ?

(दानवों के नायक कौन थे ?)

उत्तर- दानवानां नायकः वृत्रासुरः आसीत् ।)

(दानवों के नायक वृत्रासुर थे।

(ग) इन्द्रस्यादेशेन देवाः किम् अकुर्वन् ?

(इन्द्र के आदेश से देवों ने क्या किया ?)

उत्तर- इन्द्रस्यादेशेन देवाः देवरक्षकं भगवन्तं विष्णुम् उपगम्य स्वरक्षायै प्रार्थयन् अकुर्वन् ।

(इन्द्र के आदेश से देवताओं के रक्षक भगवान विष्णु के पास जाकर अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की।)

(घ) केन वज्रः निर्मितः ?

(किससे वज्र निर्मित हुआ ?)

उत्तर-दधीचे अस्थिभ वज्रस्य निर्माणं अभवत् ।

(दधीचि की अस्थि से वज्र का निर्माण हुआ । )

(क) प्राचीनकाले देवानां दानवानां ……..अभूत् ।

(ख) प्रार्थनां श्रुत्वा……. प्रसन्नो अब्रवीत्

(ग) ऋषयः खलु…. भवन्ति ।

(घ) तेन……….. वृत्रासुरस्य वधः संभवोऽस्ति ।

उत्तर- (क) भयङ्करसंग्रामो (ख) भगवान् विष्णुः, (ग) परोपकारिणो, (घ) वज्रेण

(क) देवों और दानवों का संग्रामः हुआ।

अनुवाद-देवानां दानवानां च संग्रामः अभूत्

(ख) भगवन! आप हमारी रक्षा करें।

अनुवाद – भगवन् भवान् अस्मान् रक्षतु ।

(ग) परोपकार सज्जनों का धन है।

अनुवाद-परोपकाराव सतां विभूतयः

(घ) इन्द्र ने वृत्रासुर का वध किया।

अनुवाद-इन्द्रः वत्रासुरं अहनत् ।

1. परोपकारः =पर + उपकारः (स्वर संधि)

2. शिविश्च= शिवि + च (विसर्ग संधि)

3. व्रतोपवासैः= व्रत + उपवासैः (स्वर संधि) –

4. एवमुक्त्वा= एवम् + उक्त्वा (स्वर संधि)

5. महर्षिः =महा+ ऋर्षिः (स्वर संधि)

1. कपोतरक्षायै= कपोतस्य रक्षायै (तत्पुरुष समास)

2. देवनायकः = देवानां नायकः (तत् पुरुष समास)

3. वज्रनिर्माणम् =वज्रस्य निर्माणम् (तत् पुरुष समास)