आदिकालीन साहित्यिक भाषा का स्वरूप
आदिकाल (संवत् 1050 से 1375) हिन्दी साहित्य का प्रारंभिक काल है, जिसे वीरगाथा काल भी कहा जाता है। इस युग की साहित्यिक भाषा का स्वरूप विविधतापूर्ण था, जिसमें अपभ्रंश भाषा प्रमुख रूप से साहित्यिक अभिव्यक्ति का माध्यम बनी। अपभ्रंश ने लोकभाषा और क्षेत्रीय बोलियों के साथ समन्वय कर साहित्यिक भाषा के रूप में अपना स्वरूप विकसित किया।
अपभ्रंश: साहित्यिक भाषा का आधार
- अपभ्रंश उस समय की प्रधान साहित्यिक भाषा थी। यह संस्कृत और प्राकृत से विकसित हुई थी।
- इसे लोकभाषा और बोलियों से भरपूर पोषण मिला, जिसने इसे साहित्यिक रचनाओं के लिए सक्षम बनाया।
- अपभ्रंश साहित्य का स्वरूप चार प्रमुख रूपों में विभाजित किया जा सकता है:
1. लोकभाषा में लिखित अपभ्रंश साहित्य
- यह अपभ्रंश का वह रूप है, जो लोकजीवन के निकट था।
- इसमें ग्रामीण जीवन, परंपराएँ, और सामान्य जन के अनुभवों का चित्रण हुआ है।
- रचनाओं में सहजता, सरलता, और बोधगम्यता प्रमुख विशेषताएँ थीं।
- उदाहरण: लोकगीत, गाथाएँ, और लोककथाएँ।
2. राजस्थानी मिश्रित अपभ्रंश साहित्य
- राजस्थान की क्षेत्रीय बोलियों (मारवाड़ी, डिंगल, पिंगल) का प्रभाव अपभ्रंश साहित्य पर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
- वीरगाथाएँ और राजपूत योद्धाओं की कहानियाँ इस मिश्रण का मुख्य विषय थीं।
- प्रमुख रचनाएँ: पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई), बीसलदेव रासो।
- इन रचनाओं में शौर्य और वीरता का वर्णन करते समय राजस्थानी की शब्दावली और शैली अपनाई गई।
3. मैथिली मिश्रित अपभ्रंश साहित्य
- पूर्वी भारत की मैथिली भाषा का अपभ्रंश साहित्य पर गहरा प्रभाव था।
- यह मुख्यतः बिहार और मिथिला क्षेत्र में विकसित हुआ।
- मैथिली मिश्रित अपभ्रंश साहित्य में प्रकृति का सुंदर वर्णन, रसभावना, और प्रेम-तत्व प्रबलता से उभरकर सामने आए।
- प्रमुख रचनाकार: विद्यापति, जिनकी रचनाओं में मैथिली भाषा और अपभ्रंश का सुंदर समन्वय है।
4. खड़ी बोली मिश्रित देशी भाषा साहित्य
- खड़ी बोली का प्रारंभिक स्वरूप अपभ्रंश में दिखाई देता है।
- यह भाषा उत्तर भारत के सामान्य जन के लिए सहज और सुलभ थी।
- धीरे-धीरे खड़ी बोली ने अपनी जगह बनाई और मध्यकालीन हिन्दी साहित्य के विकास में सहायक बनी।
- अपभ्रंश साहित्य की कुछ रचनाओं में खड़ी बोली का प्रयोग देशज प्रभाव के साथ किया गया।
आदिकालीन भाषा का स्वरूप: विशेषताएँ
- मिश्रित भाषा का स्वरूप:
- अपभ्रंश में क्षेत्रीय बोलियों का समावेश हुआ, जो इसे समृद्ध और प्रांजल बनाता है।
- यह भाषा संस्कृत की विद्वता और प्राकृत की सरलता का संतुलित रूप थी।
- साधारण जन के निकटता:
- अपभ्रंश लोकभाषा के करीब थी, जिससे यह सामान्य जन को आसानी से समझ में आती थी।
- काव्य की प्रधानता:
- वीरगाथा काव्य इस काल की प्रमुख साहित्यिक विधा थी।
- छंदों का उपयोग भाषा को लयात्मक और प्रभावशाली बनाता था।
- धर्म और वीरता का प्रभाव:
- रचनाओं में धर्म, शौर्य, और कर्तव्य की प्रधानता रही।
- शब्दावली और शैली:
- संस्कृत, प्राकृत, और लोकभाषा के शब्दों का संतुलित उपयोग।
- शैली में अलंकार और रस की प्रचुरता।
निष्कर्ष
आदिकालीन साहित्यिक भाषा, अपभ्रंश, भारतीय साहित्य की विकास यात्रा में एक महत्वपूर्ण चरण थी। यह भाषा अपने समय की धार्मिक, सामाजिक, और सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करने में समर्थ थी। लोकभाषा, क्षेत्रीयता, और संस्कृत-प्राकृत की समृद्ध परंपरा से पोषित यह भाषा हिन्दी साहित्य की नींव बनी।