जीत खेल भावना की कक्षा चौथी विषय हिन्दी पाठ 11
प्रधान अध्यापक जी के ऑफिस के आगे भीड़ लगी हुई थी। कुछ लड़कों ने सुरेश को इतना मारा था कि उसका सिर फूट गया था। सब इस बात को जानते थे कि यह काम महेश और उसके साथियों का है। सुरेश और महेश की दुश्मनी पूरे स्कूल में जाहिर थी। मगर बात इतनी बढ़ जाएगी, इसकी किसी को भी उम्मीद न थी। प्रधान अध्यापक जी के बहुत पूछने पर भी सुरेश ने महेश का नाम नहीं बताया।
प्रधान अध्यापक जी ने एक बार फिर पूछा, “बताओ सुरेश, यह किसका काम है … उसे जरूर सजा दी जायगी।”
“नहीं सर, मेरा पैर सीढ़ियों से फिसल गया था। इसलिए चोट लग गई।”
मगर प्रधान अध्यापक जी को भनक लग गई थी कि वार्षिकोत्सव की तैयारी करते समय सुरेश और महेश में कुछ कहासुनी हो गई थी। हर बार सभी खेलों में सुरेश अव्वल आता, इस कारण महेश उससे ईर्ष्या करने लगा था। उसके कुछ साथियों ने उसके इतने कान भरे कि वह सुरेश को अपना दुश्मन समझने लगा था।
उसका नतीजा आज सबके सामने था। सुरेश को अस्पताल ले जाकर पट्टी करवा दी गई।
साथ ही, सिर में कुछ टाँके भी लगे। फिर उसे घर भेज दिया गया।
दूसरे दिन हाल खचाखच भरा हुआ था क्योंकि प्रधान अध्यापक जी ने विशेष मीटिंग बुलाई थी। वातावरण एकदम शांत था।
प्रधान अध्यापक जी बोले, “कल हमारे स्कूल में जो घटना हुई है, उससे मुझे गहरा आघात पहुँचा है। मुझे दुख है कि हमारे स्कूल की शिक्षा को कुछ छात्रों ने सही ढंग से ग्रहण नहीं किया।”
महेश और उसके साथियों के चेहरे पीले पड़ गए। उन्हें ऐसा महसूस हो रहा था मानो उनकी धमनियों में रक्त जम गया हो। महेश सोच रहा था कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सुरेश ने उसका नाम प्रधान अध्यापक जी को बता दिया हो।
‘हाय, अब क्या होगा ?’ महेश सोच में पड़ गया। सुरेश को मारते वक्त वह इतना हिंसक हो गया, मानो उस पर शैतान सवार हो गया हो। उसने आगा देखा न पीछा, स्टिक से सुरेश के सिर पर कई वार किए। सुरेश जब लहूलुहान हो गया तो डरकर महेश व उसके दोस्त भाग गए।
तभी प्रधान अध्यापक जी की आवाज़ सुनकर महेश की तन्द्रा भंग हुई। वे कह रहे थे, “मगर सुरेश ने मेरे बहुत पूछने पर भी उस छात्र का नाम नहीं बताया, जो उसे इस हालत में पहुँचाने का जिम्मेदार है। यदि वह छात्र अपनी गलती स्वीकार कर लेता है तो उसे कोई सजा नहीं दी जाएगी अन्यथा पता चलने पर उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जाएगी।”
“हाँ, एक बात और,”प्रधान अध्यापक जी थोड़ा रुककर आगे बोले। “इस बार वार्षिकोत्सव खेल रद्द किया जाता है। खेल अगर आपस में सहयोग, प्यार की भावना का संचार करने में असफल रहता है तो कोई फ़ायदा नहीं ऐसे आयोजनों का, जो आपस में ईर्ष्या और द्वेष की भावना को जन्म दें। खेल अगर खेल की भावना से खेला जाए तभी अच्छा है। अच्छा, अब आप सब जा सकते हैं।”
सभी छात्रों का उत्साह ठंडा पड़ गया।
उधर महेश के मन में उथल-पुथल मची हुई थी। वह ग्लानि के कारण स्वयं से भी नज़रें नहीं मिला पा रहा था। वह सोच रहा था कि सुरेश चाहता तो उसे सज़ा दिला सकता था। फिर उसने मन-ही-मन अपनी गलती स्वीकार की और प्रधान अध्यापक जी के पास जा पहुँचा।
“सर, मुझे माफ कर दीजिए। मैं ही सुरेश की इस हालत का जिम्मेदार हूँ,” कहते हुए महेश की आँखों से आँसू निकल पड़े।
“मैं जानता था कि तुम जरूर आओगे। तुम्हें गलती का अहसास हो गया, यही मैं चाहता था। तुम सुरेश से माफी माँगो, तुमने उसे गहरा आघात पहुँचाया है,” प्रधान अध्यापक जी बोले।
“सर, एक विनती है आपसे,” महेश आँसू पोंछते हुए बोला। “आप वार्षिकोत्सव खेल रद्द न कीजिए। मैं वायदा करता हूँ कि हम खेल को खेल की भावना से ही खेलेंगे। उसे ईर्ष्या का कारण नहीं बनने देंगे।”
“ठीक है,” प्रधान अध्यापक जी बोले।
नियत समय पर खेलोत्सव शुरू हुए। जैसा हमेशा होता आया था, सुरेश इस बार भी सभी प्रतियोगिताओं में विजयी रहा। सभी शिक्षकों के मन में आशंका थी कि कहीं फिर कोई हादसा न हो, मगर सबकी आशंका के विपरीत महेश आगे बढ़ा और सुरेश से बोला, “बधाई हो सुरेश, वास्तव में मेहनत ही सफलता की हकदार होती है।”
“तुम ऐसा क्यों सोचते हो,” सुरेश बोला। अगली बार तुम्हें भी सफलता जरूर मिलेगी। मैं तुम्हें प्रैक्टिस कराऊँगा। बोलो स्वीकार है।”
महेश की आँखों में आँसू आ गए। बोला, “क्या तुम मेरे दोस्त बनोगे ?”
“क्यों नहीं ?”
सुरेश और महेश दोनों प्रधान अध्यापक जी के पास पहुँचे। प्रधान अध्यापक जी खुश थे कि उनका प्रयास बेकार नहीं गया।