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साहसी रूपा कक्षा चौथी विषय हिन्दी पाठ 4

साहसी रूपा कक्षा चौथी विषय हिन्दी पाठ 4

पाठशाला में एक नई लड़की ने प्रवेश लिया। अध्यापिका जी ने कक्षा से उसका परिचय कराया- “यह रूपा है। यह इसी कक्षा में पढ़ेगी। ” फिर वे रूपा से बोलीं, “रूपा! तुम्हारी सहेलियाँ तुम्हें बता देंगी कि वे कौन-कौन-से पाठ पढ़ चुकीं हैं। कोई कठिनाई होने पर वे तुम्हारी सहायता करेंगी।”
रूपा कम बोलती थी। वह चुप ही रहती थी। उसकी सहेलियाँ उससे बात करना चाहती थीं, परन्तु वह चुप-चुप ही रहती। लड़कियों ने भी दो-तीन दिन तो उससे बात करने की कोशिश की, फिर वे अपनी-अपनी सहेलियों में मस्त हो गईं। उन्हें लगा कि रूपा किसी से बात करना पसंद नहीं करती।
एक दिन पाठशाला में पिकनिक का कार्यक्रम बना। सबने सोचा, रूपा नहीं जाएगी, परन्तु पिकनिक के दिन रूपा ही सबसे पहले विद्यालय के फाटक के पास खड़ी थी।
पिकनिक का स्थान छोटी-सी झील का किनारा था। ऊँचे-ऊँचे वृक्षों से घिरा यह स्थान पिकनिक के लिए बहुत उपयुक्त था। पहाड़ी स्थल होने के कारण ऊँची-नीची भूमि पर खिले रंग-बिरंगे फूल और लताएँ झील की शोभा और भी बढ़ा रही थीं।
लड़कियों के वहाँ पहुँचते ही उनकी हँसी और ठहाकों से वातावरण गूँजने लगा। सभी इधर-उधर दौड़कर अपने लिए अच्छे-से-अच्छा स्थान खोजने लगीं। अध्यापिका जी ने एक सुंदर जगह देखकर दरियाँ बिछवा दीं। कुछ लड़कियाँ वहीं बैठकर हँसी-मजाक करने लगीं। कुछ इधर-उधर घूमकर प्रकृति की शोभा का आनंद लेने लगीं।

रूपा आज भी अकेली थी। वह अपनी सहेलियाँ से अलग घूम रही थी। वह सुंदर-सुंदर फूलों को देखती, उनकी ओर हाथ बढ़ाती, पर बढ़ा हुआ हाथ फूलों को सहलाकर पीछे आ जाता। वह फूलों की क्यारियों से होती हुई लताओं के पास जाकर
बैठ गई।
रूपा मन-ही-मन उस स्थान के सौंदर्य की प्रशंसा कर रही थी। अचानक ‘छपाक’ की आवाज़ हुई और एक चीख गूँज गई। रूपा उठकर तेजी से आवाज़ की ओर दौड़ी।
झील के एक किनारे पर उसे एक सफेद कपड़ा-सा दिखाई दिया। वह उधर ही दौड़ने लगी। पास पहुँचते ही उसे ‘बचाओ ! बचाओ!’ की आवाज़ सुनाई पड़ी। उसने देखा कि उसकी सहेली शांति झील में गिर गई है।
वास्तव में झील के उस स्थान पर पानी कम और कीचड़ अधिक था। एक तरह से झील का वह भाग दलदल बना हुआ था और लोग उस तरफ बहुत कम जाते थे। रूपा ने जोर-से आवाज़ लगाई, ‘बचाओ-बचाओ’। उसने शांति से कहा, “तुम धैर्यपूर्वक खड़ी रहो, अभी मैं किसीको बुला लाती हूँ,” परंतु शांति हाथ-पाँव पटक रही थी। इससे वह कीचड़ में और भी धँसती जा रही थी। रूपा ने एक क्षण कुछ सोचा और वह अपने थैले में से फल काटने का चाकू लेकर पास की लता को जल्दी-जल्दी काटने लगी।
जैसे ही लता कटी, उसने उसे जोर-से शांति की ओर फेंका और चिल्लाई.”इसे पकड़ लो, शांति ! इसे दोनों हाथों से कसकर पकड़ लो शांति ने लता पकड़ ली और कीचड़ में पाँव मारने लगी। रूपा ने कहा,” इसे पकड़े रहो, पाँव मत मारो। मैं तुम्हें धीरे-धीरे अपनी तरफ खींचूँगी । “
रूपा लता को अपनी ओर खींचने लगी। उसके हाथ जगह-जगह से कट रहे थे।
उसका कुर्ता भी फट गया था, परंतु उसने किसी बात की परवाह न की। शांति को बाहर लाना कोई आसान काम न था। पर रूपा ने हिम्मत नहीं हारी और धीरे-धीरे उसे खींचती रही। शांति को भी अब अपने बचने की आशा हो गई। वह धैर्य से लता को
पकड़े रही और आगे-बढ़ती गई। बीच-बीच में रूपा, ‘बचाओ, बचाओ’ भी चिल्लाती रही।
लोगों ने ‘बचाओ, बचाओ’ की आवाज़ सुनी तो वे उधर दौड़े। रूपा बहुत थक चुकी थी। उसके शरीर से पसीना बह रहा था। उसका मुँह लाल हो रहा था, पर भी वह लता को खींचे जा रही थी। उसी समय अध्यापिका तथा झील का एक चौकीदार वहाँ पहुँच गए। उन्होंने रूपा के हाथों से लता ले ली और शांति को खींचने लगे। शांति कीचड़ से निकल आई और घिसटती हुई सूखी ज़मीन पर आ पड़ी। रूपा बेहोश हो गई थी। इतने में अन्य लड़कियाँ वहाँ पहुँच गई।
रूपा के मुँह पर पानी के छींटे मारे गए। वह होश में आ गई। शांति का शरीर कीचड़ से लथपथ था। उसे भी कई खरोंचें लगीं थीं, पर वह होश में थी। शांति सबको पूरी बात बता रही थी और सभी लड़कियाँ रूपा को प्रशंसा भरी दृष्टि से देख रही थीं।
अध्यापिका जी ने रूपा की पीठ थपथपाई। शांति ने उसको धन्यवाद देते हुए कहा, “आज तुम न होती तो मैं अपने प्राणों से हाथ धो बैठती । हम तुम्हें अभिमानी समझती थीं, पर तुम तो सच्ची मित्र निकलीं।”
रूपा ने शर्माते हुए कहा, ” नहीं-नहीं ऐसा नहीं है। मुझे किसी से भी बात करने में संकोच होता है।” तभी एक लड़की बोल उठी, “हाँ, अब हम तुम्हें अभिमानी नहीं, शर्मीली कहा करेंगी।”
सभी लड़कियाँ ठहाका मारकर हँसने लगीं और वातावरण में फिर से प्रसन्नता छा गई।