अपभ्रंश भाषा के कवियों का परिचय इस पोस्ट में बताया गया है-
अपभ्रंश भाषा के कवियों का परिचय
हेमचंद्र-
गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह (संवत् 1150-1199) और उनके भतीजे कुमारपाल (संवत् 1199-1230) के यहाँ हेमचंद्र का बड़ा मान था।ये अपने समय के सबसे प्रसिद्ध जैन आचार्य थे।इन्होंने एक बड़ा भारी व्याकरण ग्रंथ सिद्ध हेमचंद्र शब्दानुशासन’ सिद्धराज के समय में बनाया, जिसमें संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का समावेश किया। अपभ्रंश के उदाहरणों में इन्होंने पूरे दोहे या पद्य उद्धृत किए हैं,
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।
लज्जेजंतु वयंसिअहु जड़ भग्गा घरु एंतु।
(भला हुआ जो मारा गया, हे बहिन! हमारा कांत। यदि वह भागा हुआ घर आता तो मैं अपनी समवयस्काओं से लज्जित होती।)
जइ सो न आवइ, दुइ! घरु काँइ अहोमुहु तुज्झु।
वयणुज खंढइ तउ, सहि ए! सो पिउ होइ न मुज्झु॥
(हे दूती? यदि वह घर नहीं आता, तो तेरा क्यों अधोमुख है? हे सखी! जो तेरा वचन खंडित करता है-श्लेष से दूसरा अर्थ; जो तेरे मुख पर चुंबन द्वारा क्षत करता है-वह मेरा प्रिय नहीं।)
जे महुदिण्णा दिअहड़ा दइएँ पवसंतेण।
ताण गणंतिए अंगुलिउँ जज्जरियाउ नहेण॥
जो दिन या अवधि दयित अर्थात् प्रिय ने प्रवास जाते हुए मुझे दिए थे उन्हें नख से गिनते-गिनते मेरी उँगलियाँ जर्जरित हो गईं।
विद्याधर-
विद्याधर नाम के एक कवि ने कन्नौज के किसी राठौर सम्राट (शायद जयचंद) के प्रताप और पराक्रम का वर्णन किसी ग्रंथ में किया था।ग्रंथ का पता नहीं पर कुछ पद्य ‘प्राकृत पिंगल सूत्र’ में मिलते हैं, जैसे-
भअभज्जिअ बंगा भंगु कलिंगा तेलंगा रण मुत्ति चले।
मरहट्ठा धिट्ठा लग्गिअ कट्ठा सोरट्ठा भअपाअ पले॥
चंपारण कंपा पब्बअझंपा उत्थी उत्थी जीव हरे।कासीसर राणा किअउ पआणा, बिज्जाहर भण मंतिवरे॥