संस्कृत काव्यशास्त्र में रीति शब्द का प्रयोग काव्यांग विशेष के लिए होता है। इसे काव्य की आत्मा माना गया है। आचार्य वामन ने इसे गुण विशिष्ट रचना या पद-संघटना की विशेष पद्धति के रूप में परिभाषित किया और ‘रीति’ को काव्य की आत्मा बताकर अलग सम्प्रदाय की स्थापना की।
रीतिकाव्य का लक्षण
रीतिकाव्य वह काव्य है जिसकी रचना किसी विशिष्ट पद्धति, नियम या शैली को ध्यान में रखकर की जाती है।
मुख्य लक्षण:
- विशिष्ट पद्धति:
रीति का अर्थ काव्य रचना की एक पद्धति या नियमों का पालन करना है। - काव्यशास्त्रीय आधार:
रीतिकाव्य संस्कृत काव्यशास्त्र की परंपराओं और नियमों पर आधारित होता है। - सौंदर्य और गुणों पर बल:
इन काव्यों में अलंकार, रस, और शब्द-सौंदर्य पर अधिक जोर दिया जाता है।
रीति के संदर्भ में कवियों के कथन
- कवि देव:
- “अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि रीति।”
इस कथन से स्पष्ट है कि हर कवि की अपनी एक विशेष काव्य शैली होती है।
- “अपनी-अपनी रीति के काव्य और कवि रीति।”
- कवि भूषण:
- “सुकविन हूँ कि कछु कृपा समुझि कविन को पंथ।”
यहाँ कवि अपने मार्ग या पद्धति को ‘पंथ’ के रूप में व्यक्त करते हैं।
- “सुकविन हूँ कि कछु कृपा समुझि कविन को पंथ।”
- कवि चिंतामणि:
- “रीति सुभाषा कवित्त की बरनत बुध अनुसार।”
कवि ने रीति को सुबोध व्यक्तियों द्वारा मान्य कविता की शैली कहा है।
- “रीति सुभाषा कवित्त की बरनत बुध अनुसार।”
आधुनिक दृष्टिकोण में रीति का महत्व
मिश्र बंधुओं के अनुसार, आचार्य रीति के माध्यम से यह सिखाते हैं कि कौन-से विषयों का वर्णन किस प्रकार किया जाना चाहिए। रीति का यह स्वरूप काव्य में बंधी हुई परंपराओं और सौंदर्यशास्त्र का समावेश करता है।
रीतिकाव्य का ऐतिहासिक महत्व
- उत्तर मध्यकाल:
इस युग में अधिकतर कवियों ने संस्कृत काव्यशास्त्र की परिपाटी पर रचनाएँ कीं। - रीतिकवि:
ऐसे कवि जिन्होंने अपने काव्य में रीति का पालन किया, वे रीतिकवि कहलाए।
रीतिकाव्य ने हिंदी साहित्य को एक विशिष्ट पहचान दी, जिसमें परंपरा, शैली और सौंदर्यशास्त्र का संतुलन देखा जा सकता है।