रामानंद का जीवन और उनके योगदान का संक्षिप्त विवरण
1. जन्म और दीक्षा:
रामानंद का जन्म 1300 ई. के आसपास काशी (वर्तमान वाराणसी) में हुआ था। उन्होंने श्री वैष्णव संप्रदाय के आचार्य राधवानंद से दीक्षा प्राप्त की थी।
2. भक्ति का दृष्टिकोण:
रामानंद ने भक्ति को शास्त्रीय मर्यादा के बंधन से मुक्त माना और जाति एवं वर्ण व्यवस्था से ऊपर उठकर भक्ति को जनसामान्य से जोड़ने का प्रयास किया। उन्होंने गाया:
“जाति-पाँति पूछे नहिं कोई, हरि को भजै सो हरि का होई”
यह कथन उनके विचारों की स्पष्ट अभिव्यक्ति है कि भक्ति में जाति-पाँति का कोई स्थान नहीं है, केवल भगवान की भक्ति महत्वपूर्ण है।
3. रामभक्ति और निर्गुण भक्ति:
रामानंद ने राम को अपना आराध्य माना और रामभक्ति को फैलाया। उनका संबंध रामभक्ति के तपसी और उदासी संप्रदाय से जुड़ा था, वहीं निर्गुण भक्ति के ज्ञानमार्गी परंपरा से भी उनका संबंध माना जाता है।
4. शिष्य परंपरा:
रामानंद की शिष्य परंपरा में कई प्रसिद्ध भक्त थे जिनमें कबीर, रैदास, पीपा, सूरदास, और अन्य महान संत शामिल थे। भक्तमाल के अनुसार उनके प्रमुख शिष्य थे-
अनंतानंद, कबीर, सुखा, सुरसुरा, पदमावति, नरहरि, पीपा, भावानंद, रैदास, धना सेन, सुरसुर की धरहरि आदि।
5. प्रमुख ग्रंथ और कार्य:
रामानंद संस्कृत के पंडित थे और उन्होंने अपने दर्शन को “आंनद भाष्य” में प्रस्तुत किया। उनके अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ थे-
- श्रीरामाराधन
- वेदांत विचार
- रामरक्षास्तोत्र
- योगचिन्तामणि
- शिवरामाष्टक
- हनुमानस्तुति
6. हनुमान पूजा और आरती:
रामानंद ने हनुमान की पूजा और आरती का विस्तार उत्तर भारत में किया और ‘आरती श्री हनुमान लला की, दुष्ट दलन रघुनाथ कला की’ प्रार्थना की रचना की, जो भक्तों के बीच अत्यधिक प्रसिद्ध हुई।
7. प्रमुख स्थल:
रामानंद के प्रमुख पूजा स्थल और उनके अनुयायियों के केंद्र अयोध्या, चित्रकूट, मिथिला और काशी रहे।
8. रामानंद का सांस्कृतिक और धार्मिक प्रभाव:
रामानंद का योगदान उत्तर भारतीय भक्ति आंदोलन को समृद्ध बनाने में महत्वपूर्ण था। उन्होंने भक्ति को व्यापक रूप से जनमानस में प्रसारित किया और समाज में समानता का संदेश दिया।