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भक्ति साहित्य की दो धाराओं- निर्गुण काव्य और सगुण काव्य

भक्ति साहित्य: निर्गुण और सगुण काव्य

भक्ति साहित्य दो प्रमुख धाराओं में विभाजित है: निर्गुण काव्य और सगुण काव्य। प्रत्येक धारा की दो उपधाराएँ हैं।


1. निर्गुण काव्य

निर्गुण काव्य ईश्वर को गुणातीत और निराकार मानता है। इसके अंतर्गत दो उपधाराएँ हैं:

  • ज्ञानाश्रयी शाखा (संत काव्य):
    • इस शाखा के कवि ईश्वर के प्रति ज्ञान को प्राथमिकता देते हैं।
    • कबीर, रैदास, और दादू जैसे संत इस धारा के प्रमुख कवि हैं।
    • इनके काव्य में ईश्वर के प्रति प्रेम तो है, लेकिन सूफी कवियों की भांति प्रेम का विषद चित्रण नहीं है।
    • इनके इष्ट निराकार, दयालु, और करुणामय हैं, लेकिन अवतार और लीला जैसी अवधारणाओं को नहीं मानते।
    • योग और सहज समाधि जैसे आध्यात्मिक अभ्यास पर बल दिया गया है।
  • प्रेमाश्रयी शाखा (सूफी काव्य):
    • यह शाखा हिन्दी का सूफी काव्य है।
    • प्रेम को ईश्वर तक पहुँचने का माध्यम माना गया है।
    • मुख्य कवि: जायसी, कुतुबन, मंझन।
    • इनके काव्य में ईश्वर को प्रेमी और आत्मा को प्रेमिका के रूप में चित्रित किया गया है।

2. सगुण काव्य

सगुण काव्य में ईश्वर को गुणसहित और साकार रूप में मान्यता दी जाती है। इसके अंतर्गत दो उपधाराएँ हैं:

  • राम भक्ति शाखा:
    • राम को आदर्श पुरुष और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में प्रस्तुत करती है।
    • इस शाखा का काव्य सामाजिक मर्यादा और लोकमंगल पर केंद्रित है।
    • मुख्य कवि: तुलसीदास।
    • रचनाएँ: रामचरितमानस
  • कृष्ण भक्ति शाखा:
    • कृष्ण की लीला, प्रेम, और लोक रंजन को केंद्र में रखती है।
    • राधा-कृष्ण के प्रेम प्रसंग और ब्रज लीला का प्रमुख वर्णन।
    • मुख्य कवि: सूरदास, मीराबाई।
    • रचनाएँ: सूरसागर, मीराबाई के भजन।

3. निर्गुण और सगुण भक्ति का अंतर

निर्गुण भक्तिसगुण भक्ति
ईश्वर निराकार और गुणातीत है।ईश्वर साकार और गुणसहित है।
अवतार और लीला की अवधारणा को नकारते हैं।अवतार और लीला को स्वीकारते हैं।
योग और ज्ञान पर बल।प्रेम और भक्ति पर बल।
प्रमुख कवि: कबीर, रैदास।प्रमुख कवि: तुलसीदास, सूरदास।

4. भक्ति साहित्य की विशेषताएँ

  • दोनों धाराओं में ईश्वर के प्रति रति (प्रेम) और अनन्यता (एकनिष्ठता) समान है।
  • नाथ-सिद्धों के योग, प्राणायाम, और समाधि जैसी साधनाएँ भक्ति के भाव में विलीन हो गईं।
  • तुलसीदास ने कहा: “अगुनहिं सगुनहिं नहिं कछु भेदा” – ईश्वर के दोनों रूपों में कोई भेद नहीं।

निष्कर्ष

भक्ति साहित्य ने भारतीय समाज में भक्ति के माध्यम से ईश्वर की उपासना को सरल और जनप्रिय बनाया। निर्गुण और सगुण भक्ति, दोनों ने मानवता, करुणा, और प्रेम का संदेश दिया और भक्तिकाल को समृद्ध बनाया।