उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन पर विद्वानों के दृष्टिकोण
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत
शुक्ल जी ने उत्तर भारत के भक्ति आंदोलन को इस्लामी आक्रमण से पराजित हिंदू जनता की असहाय और निराश मनःस्थिति से जोड़ा।
उनके अनुसार, अपनी पराजय और पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान देना स्वाभाविक था।
शुक्ल जी मानते थे कि यह आंदोलन दक्षिण भारत से आया।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत
द्विवेदी जी शुक्ल जी से भिन्न मत रखते हैं और भक्ति आंदोलन को भारतीय चिंतनधारा का स्वाभाविक विकास मानते हैं।
उनके अनुसार, नाथ-सिद्धों की साधना, अवतारवाद, लीलावाद, और जातिगत कठोरता ने दक्षिण भारत से आई धारा में घुलकर इस आंदोलन को विकसित किया।
उनका मानना है कि यह आंदोलन लोकोन्मुखता और मानवीय करुणा के महान आदर्श से युक्त था।
शुक्ल जी और द्विवेदी जी के दृष्टिकोण का अंतर
शुक्ल जी ने भक्ति आंदोलन के लिए तात्कालिक परिस्थितियों (इस्लामी आक्रमण और जनता की मनःस्थिति) को प्रमुख कारण माना।
द्विवेदी जी ने परंपरा और भारतीय समाज की गहराई में निहित लोक धारा को प्रमुख कारण माना।
शुक्ल जी साहित्यिक परिवर्तन और विकास के लिए ‘जनता’ (समाज के सभी वर्गों) को जिम्मेदार मानते हैं, जबकि द्विवेदी जी ‘लोक’ (समाज का पिछड़ा वर्ग) को प्राथमिक कारक मानते हैं।
भक्ति आंदोलन का प्रारंभ
सभी विद्वानों ने भक्ति आंदोलन का प्रारंभ दक्षिण भारत से माना है।
श्रीमद्भागवत पुराण में भक्ति स्वयं कहती है: ‘उत्पन्ना द्रविड़ साहं’।
कबीर ने भी कहा: ‘भक्ति द्राविड़ ऊपजी लायो रामानंद’।
संक्षेप में
शुक्ल जी का बल तात्कालिक परिस्थितियों पर है, जबकि द्विवेदी जी परंपरा पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं।
यह अंतर उनकी ऐतिहासिक और सामाजिक दृष्टि में भिन्नता के कारण है।