भक्तिकाल की आर्थिक एवं सामाजिक परिस्थितियाँ
भक्तिकाल (13वीं से 17वीं शताब्दी) के दौरान भारत में तुर्की शासन और मुगल साम्राज्य के सुदृढ़ होने से सामाजिक, आर्थिक, और धार्मिक परिस्थितियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए। इस युग की पृष्ठभूमि ने भक्ति आंदोलन के विकास को गहराई से प्रभावित किया।
आर्थिक परिस्थितियाँ
- केंद्रीकृत शासन और राजस्व व्यवस्था:
- तुर्कों और मुगलों ने केंद्रीकृत शासन व्यवस्था स्थापित की।
- साम्राज्य को सूबों, शिकों और परगनों में विभाजित किया गया। गाँव स्तर पर खुत, मुकद्दम और पटवारी राजस्व संग्रहण का कार्य करते थे।
- कृषि पर आधारित अर्थव्यवस्था में जमींदारों के माध्यम से किसानों का शोषण सामान्य था। तुलसीदास ने किसानों की दयनीय दशा का वर्णन किया है:“खेती न किसान को, भिखारी को न भीख, बलि।
बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।”
- शहरों और व्यापार का विकास:
- दिल्ली, आगरा, बनारस, इलाहाबाद, और पटना व्यापार और कारीगरी के प्रमुख केंद्र बने।
- सड़कें, सराय, और किलों का निर्माण हुआ, जिससे राजमिस्त्री और शिल्पियों की माँग बढ़ी।
- नए शिल्पी वर्ग का उदय हुआ, जिसमें अधिकांश अवर्ण थे।
- ग्रामीण अर्थव्यवस्था की दशा:
- किसानों की स्थिति बेहद दयनीय थी। बार-बार अकाल और जमींदारों के शोषण ने उनकी दशा बिगाड़ी।
- तुलसीदास ने अकाल की भयावहता को इस प्रकार व्यक्त किया:“कलि बारहिं बार दुकाल परै।
बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।”
- व्यापार और कारीगरी:
- पत्थर तराशने और भवन निर्माण जैसे कार्यों ने कारीगर वर्ग को रोजगार दिया।
- व्यापारिक केंद्रों ने भारतीय अर्थव्यवस्था को सक्रिय बनाए रखा।
सामाजिक परिस्थितियाँ
- वर्ण-व्यवस्था और जातिगत भेदभाव:
- वर्ण-व्यवस्था कमजोर होने लगी, लेकिन इसका प्रभाव अब भी गहरा था।
- शूद्रों और अछूतों के प्रति भेदभाव जारी रहा।
- अवर्ण संतों (कबीर, रैदास) ने निर्गुण भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
- धार्मिक और सामाजिक पाखंड:
- आचार-विचार में पाखंड और स्वार्थ की प्रधानता थी।
- धार्मिक कुरीतियों और सामाजिक रूढ़ियों ने समाज को बाँट रखा था।
- हिन्दू-मुस्लिम संबंध:
- मुस्लिम समाज भी नस्ल और वर्गों में विभाजित था।
- हिन्दू-मुस्लिम मेलजोल सीमित था, लेकिन अकबर के समय में स्थिति में सुधार आया।
- अकबर की नीतियों ने धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा दिया।
- ग्रामीण समाज:
- ग्रामीण क्षेत्रों में शोषण चरम पर था।
- तुलसीदास और अन्य कवियों ने ग्रामीण जीवन की पीड़ा को अपने साहित्य में उकेरा।
भक्ति आंदोलन का उदय
इन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों ने भक्ति आंदोलन को जन्म दिया:
- शोषित वर्ग का स्वर:
- वर्ण-व्यवस्था और शोषण के खिलाफ संत कवियों ने आवाज उठाई।
- कबीर, रैदास, और दादू जैसे संतों ने समाज की बुराइयों को उजागर किया।
- सामाजिक समरसता का संदेश:
- भक्ति आंदोलन ने सभी जातियों और वर्गों को ईश्वर के प्रति समान अधिकार का संदेश दिया।
- धार्मिक एकता और साधना:
- निर्गुण संतों ने बाह्य आडंबरों को त्यागकर साधना और आंतरिक शुद्धता पर जोर दिया।
- तुलसीदास जैसे सगुण भक्ति कवियों ने रामभक्ति के माध्यम से सामाजिक एकता का संदेश दिया।
निष्कर्ष
भक्तिकाल की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियाँ विषम थीं। एक ओर आर्थिक विकास और शिल्पकार वर्ग का उदय हुआ, तो दूसरी ओर किसानों और निम्न वर्गों का शोषण चरम पर था। वर्ण-व्यवस्था और धार्मिक पाखंड ने समाज को विभाजित किया, लेकिन भक्ति आंदोलन ने सामाजिक समरसता, धार्मिक सहिष्णुता, और आंतरिक साधना का मार्ग प्रशस्त किया।