जैन साहित्य: परिचय और विशेषताएँ
जैन धर्म ने भारतीय साहित्य को अपभ्रंश और प्राकृत भाषाओं में अद्वितीय कृतियाँ दी हैं। आठवीं शताब्दी से प्रारंभ हुए जैन साहित्य में धर्म, दर्शन, और नैतिकता के साथ-साथ लोककथाओं और पौराणिक चरित्रों को नए दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया गया। जैन साहित्य में प्रमुख रूप से तीर्थंकरों के जीवन चरित्र, धार्मिक आदर्श, और लोकमंगल की भावना विद्यमान है।
जैन साहित्य का स्वरूप
- रास परंपरा:
- जैन धर्मावलंबियों ने रास के रूप में तीर्थंकरों और पौराणिक चरित्रों की कथाओं की रचना की।
- रात्रिकालीन जैन मंदिरों में श्रावकों द्वारा इन रासों का गायन किया जाता था।
- रचनाएँ साहित्यिक दृष्टि से उच्च कोटि की थीं और धार्मिक चरित्र पर आधारित थीं।
- अपभ्रंश साहित्य का योगदान:
- अपभ्रंश भाषा में जैन कवियों ने उत्कृष्ट काव्य रचना की।
- इनकी रचनाओं में नैतिकता, धर्म, और जीवन के आदर्शों पर बल दिया गया।
जैन साहित्य के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएँ
1. स्वयंभू (783 ईस्वी)
- पउमचरिउ: रामकथा पर आधारित प्रसिद्ध काव्य।
- ऋत्त-नेमिचरिउ: भगवान नेमिनाथ का जीवन चरित्र।
- स्वयंभूछन्द: काव्य की सरसता और प्राकृतिक सौंदर्य का सूक्ष्म वर्णन।
- स्वयंभू की वर्णन शैली का प्रभाव परवर्ती जैन कवियों पर स्पष्ट है।
2. पुष्यदन्त (10वीं शताब्दी)
- णयकुमार चरिउ, महापुराण, और जसहर चरिउ: प्रमुख ग्रंथ।
- महापुराण: तीर्थंकरों और पौराणिक महापुरुषों का चरित्र।
- दोहा और चौपाई शैली में रचनाएँ।
- इन्हें “अपभ्रंश भाषा का व्यास” कहा जाता है।
3. धनपाल (10वीं शताब्दी)
- भविष्यतकहा: श्रुतपंचमी व्रत के माहात्म्य को प्रतिपादित करने वाला महाकाव्य।
- लौकिक कथानक, आलंकारिक शैली, और साहित्यिक मुहावरों का प्रयोग।
4. देवसेन (933 ईस्वी)
- श्रावकाचार: 250 दोहों में श्रावक धर्म और गृहस्थ कर्तव्यों का वर्णन।
- नैतिक और धार्मिक जीवन का स्पष्ट दिशा-निर्देशन।
5. शालिभद्र सूरि (1184 ईस्वी)
- भरतेश्वर बाहुबली रास: वीरता और वैराग्य का खंड काव्य।
- 205 छंदों में भरत और बाहुबली की कथा।
- जैन साहित्य में रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ।
6. सोमप्रभसूरि
- कुमारपालचरित्र: संस्कृत और प्राकृत मिश्रित काव्य।
- अपभ्रंश भाषा के दोहे।
7. मेरुतुंग (12वीं शताब्दी)
- प्रबंध चिन्तामणि: प्राचीन राजाओं की कथाएँ, दोहा शैली में।
- इस ग्रंथ में बुद्धियुक्त दोहों का उल्लेख।
8. आसगु (1200 ईस्वी)
- चंदनबाला रास: चंदनबाला के सतीत्व और मोक्ष की कथा।
- जालौर में रचित यह लघु खंड काव्य।
9. जिनधर्मसूरि (1209 ईस्वी)
- स्थूलिभद्र रास: भोग-विलास त्यागकर धर्म में दीक्षित होने की कथा।
- अपभ्रंश भाषा का प्रभाव।
10. हेमचन्द्र (12वीं शताब्दी)
- शब्दानुशासन और छंदोनुशासन: व्याकरण और छंद शास्त्र पर ग्रंथ।
- “अपभ्रंश भाषा का पाणिनि” के रूप में प्रसिद्ध।
जैन साहित्य की विशेषताएँ
- धार्मिक और नैतिक आदर्श:
- जैन साहित्य में धर्म और नैतिकता के प्रचार पर विशेष बल।
- तीर्थंकरों और महापुरुषों के चरित्रों का आदर्श रूप में चित्रण।
- भाषा और शैली:
- अपभ्रंश, प्राकृत, और संस्कृत का प्रयोग।
- दोहा, चौपाई, और छंदबद्ध शैली का प्रमुखता से उपयोग।
- लोकप्रियता और प्रभाव:
- जैन साहित्य ने हिंदी साहित्य और रामचरितमानस पर भी गहरा प्रभाव डाला।
- रचनाओं में लौकिक भाषा और आलंकारिक शैली का उपयोग।
- रास परंपरा का विकास:
- तीर्थंकरों और पौराणिक कथाओं का गायन-प्रस्तुतीकरण।
- रास साहित्य ने धार्मिक प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
निष्कर्ष
जैन साहित्य ने भारतीय साहित्यिक परंपरा को धर्म, दर्शन, और नैतिकता से समृद्ध किया। अपभ्रंश और प्राकृत भाषाओं में रचित यह साहित्य, न केवल धार्मिक आदर्शों का प्रचारक है, बल्कि साहित्यिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। तीर्थंकरों की कथाएँ, धार्मिक चरित्र, और रास परंपरा इस साहित्य को विशिष्ट बनाते हैं।