कबीर (1397-1518 ई.)

कबीर: जीवन, काव्य और दर्शन

कबीर (1397-1518 ई.) भारतीय संत कवियों में अग्रणी स्थान रखते हैं। उनके जन्म, जीवन और मृत्यु से संबंधित अनेक किंवदंतियाँ प्रचलित हैं। जनश्रुति के अनुसार, उनका जन्म 1397 ई. में काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के घर हुआ। लोकापवाद के भय से उन्हें लहरतारा ताल के निकट छोड़ दिया गया, जहाँ नीरू और नीमा नामक जुलाहा दंपत्ति ने उनका पालन-पोषण किया। स्वयं कबीर ने अपनी कविताओं में जुलाहा होने का उल्लेख किया है।

कबीर के परिवार में पत्नी लोई और दो संतान—पुत्र कमाल और पुत्री कमाली—का उल्लेख मिलता है। उनकी मृत्यु के समय हिंदू और मुस्लिम अनुयायियों के बीच विवाद हुआ, लेकिन कहा जाता है कि उनका शव अंतर्धान हो गया और केवल कुछ फूल रह गए। यह घटना उनके व्यक्तित्व की सार्वभौमिकता को दर्शाती है। उनकी मृत्यु 1518 ई. में मगहर, जिला बस्ती में हुई।

गुरु और साधना

कबीर के दीक्षा गुरु रामानंद थे। कहा जाता है कि कबीर ने पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर रामानंद के चरण स्पर्श से “राम-राम” मंत्र प्राप्त किया। उनके काव्य में वेदांत का अद्वैत, नाथपंथियों की साधना, हठयोग, और इस्लाम का एकेश्वरवाद स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

कबीर का काव्य

कबीर का काव्य जीवन की सहजता के अधिक निकट है। उनकी रचनाओं का संग्रह उनके शिष्यों ने “बीजक” नामक ग्रंथ में किया, जिसमें तीन भाग हैं—”रमैनी”, “सबद” और “साखी”। रमैनी और सबद गाने योग्य पदों में हैं, जबकि साखी दोहा छंद में है।

कबीर की भाषा सधुक्कड़ी थी, जिसमें अनेक बोलियों का समावेश था। उन्होंने ठेठ शब्दों और जनभाषा का प्रयोग किया, जिससे वे “वाणी के डिक्टेटर” कहलाए। उनकी कविताओं में मानवीय करुणा, निर्भीकता, और व्यंग्य के तीखे स्वर प्रमुख हैं।

कबीर की दर्शनशैली

कबीर ने भक्ति को जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य माना। उनके राम निराकार हैं, लेकिन वे उन्हें विभिन्न मानवीय संबंधों में अनुभव करते हैं। उनकी भक्ति ने युग के मिथ्याचार, कर्मकांड, और सामाजिक विषमताओं को चुनौती दी।

उन्होंने धर्म और परंपरा पर प्रश्न उठाए, जैसे—”चलन-चलन सब लोग कहत है, न जाने बैकुंठ कहाँ है?”। उनके काव्य में काल बोध तीव्र है—”चलती चाकी देखकर, दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोय।”

कबीर का सामाजिक योगदान

कबीर ने अपने काव्य के माध्यम से सामाजिक न्याय और समानता की स्थापना में योगदान दिया। उनकी रचनाएँ शास्त्रीयता से अधिक अनुभव को महत्व देती हैं। उन्होंने संस्कृत की जगह जनभाषा को अपनाया और लोक-संस्कृति को समृद्ध किया।

निष्कर्ष

कबीर न केवल भक्त कवि थे, बल्कि मानवता और यथार्थ के कवि भी थे। उनकी कविताएँ आज भी समाज को सही दिशा दिखाने वाली मशाल हैं। उनका साहस, अनुभव, और करुणा हमारे लिए प्रेरणास्रोत बने हुए हैं। कबीर की वाणी हमें सिखाती है कि प्रेम और भक्ति से जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।