अंधेर नगरी की भाषा – शैली एवं संवाद योजना
संवाद नाटक की आत्मा होते हैं। उन्हीं के आधार पर नाटक की कथा निर्मित और विकसित होती है, पात्रों के चरित्र के सम्बन्ध में जानकारी मिलती है, उनका विकास होता है। संवाद ही नाटक में सजीवता, रोचकता तथा पाठक के मन में जिज्ञासा और कौतूहल जगाते हैं नाटकीय संवादों में पात्रों के मनोभावों को अभिव्यक्त करने उनके मानसिक द्वन्द्व को चित्रित करने की शक्ति होती है। कथा के उद्देश्य को करने और नाटक को अभिनेय बनाने की दृष्टि से भी संवादों की भूमिका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। नाटक के संवादों की उत्तमता की कसौटी है उनका संक्षिप्त तथा त्वरित गति का होना। स्वयं भारतेन्दु ने नाटक के संवादों के गुण बताते हुए लिखा था, ” ग्रन्थकर्ता ऐसी चातुरी और नैपुण्य से पात्रों की बातचीत बिरचित करे कि जिस पात्र का जो स्वभाव हो वैसी ही उसकी बात भी विरचित हो पात्र की बात सुनकर उसके स्वभाव का परिचय ही नाटक का प्रधान अंग है. नाटक में वाचालता की अपेक्ष के साथ वाग्मिता का भी सम्यक् आदर होता है। थोड़ी-सी बात में अधिक भाव की अवतारणा ही नाटक- जीवन की महौषधि है। “
संवाद योजना
संवाद हेतु मान्य कसौटी के आधार पर यदि अंधेर नगरी के सम्वादों को परखा जाए तो उनमें प्रायः सभी गुण पाये जाते हैं। वे सुन्दर छोटे, नाटकीय, व्यंग्यपूर्ण, सशक्त, सजीव और गति शील हैं। उनमें चरित्रगत विशेषताओं और कथा के अभीष्ट को स्पष्ट करने की क्षमता है। वे वातावरण की स्वाभाविकता उत्पन्न करने में समर्थ हैं; दूसरे दृश्य में बाजार का वातावरण सम्वादों के माध्यम से ही सजीव और स्वाभाविक बनाया गया है। बाजार वालों की अपनी भाषा और अपना लहजा होती है। लेखक ने उन्हीं का प्रयोग किया है। कबाब वाला, हलवाई, कुंजड़िन, चूरन वाला जातवाला ब्रह्मण सब अपनी-अपनी भाषा और मुहावरों में बात करते हैं सबकी भाषा सजीव और उनके व्यवसाय तथ वर्ग के अनुरूप है कबाव वाला कहता है, “कबाब गरमा-गरम मसालेदार, तो हलवाई पुकार लगाता है, जलेबियाँ गरमा-गरम… मोमनदार कचौड़ी कचाका हलुआ नरम मचाका। नारंगी वाली की भाषा अलग है, मछली वाली की भाषा अलग और सब मिलकर ऐसा वातावरण निर्मित करते हैं कि पाठक के सम्मुख बाजार का दृश्य साकार हो उठता है। इनके पबद्ध संवादों में पारसी शैली के पैबन्द लगाकर लेखक ने उन्हें और भी सजीव बना दिया है।
महन्त तथा उनके शिष्यों की भाषा उनके वर्ग की है, वह साधुओं की बोल-चाल की भाषा है- भिच्छा-उच्छा मिलै तो ठाकुर जी का भोग लगे।” अथवा ‘गुरु जी महाराज, नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुन्दर है जो है सो, पर भिच्छा सुन्दर मिलै तो बड़ा आनन्द होय।” अथवा “देख, जो कुछ सीधा – सामग्री मिलै तो श्री शालग्राम जी का बालभोग सिद्ध हो। ” गोवर्धनदास की लोभवृत्ति उसकी बातों से प्रकट होती है- छक जायेंगे, रोज मिठाई चाभना, वाह-वाह बड़ा आनन्द है।” राजा मूर्ख है, असंस्कृत है फूहड़ अतः उसकी भाषा भी फूहड़पन से भरी है – क्यों बे भिश्ती, गंगा-जमुना की किश्ती या क्यों बे खैर सुपारी, चूने वाले, क्यों बे अखपौंड़े के गड़रिये । ” पीनक में वह बकरी को कभी कुबरी बोलता है कभी लरकी तो कभी बरकी भाषा में बोलचाल का पुट तथा चुलबुलापन संवादों को अतिरिक्त शक्ति प्रदान करता है। ये संवाद मात्र के व्यक्तित्व और आचरण की रेखाएं उकेरते हैं। राजा के संवाद और उनकी भाषा उसकी मूर्खता, उजड्डता, अशिष्टता, बुद्धि के स्तर की ओर संकेत करते हैं। उसके तुक और लय वाले संवाद ‘भिश्ती किश्ती’ उसकी अतिसरलीकरण तथा सिर पर आन पड़ी वाली मनोवृत्ति के सूचक हैं।
अंधेर नगरी के संवादों की भाषा की अन्य विशेषताएँ हैं- नकल-भड़ैत शैली, तुकमय संवाद- दीवार लगाई, बकरी दबाई’, व्यंग्य- कटाक्ष, विशेष संबोधन शब्दों की आवृत्ति, वग्मिता एवं वाक्य रचना। राजा सबको अपनी अशिष्ट भाषा में, ‘दुष्ट, लुच्चा, पाजी, क्यों बे’ पुकारता है; गोवर्धनदास प्यादों द्वारा पकड़े जाने पर सहायता के लिए पुकारते समय इन संबोधनों का प्रयोग करता है, “अरे बाप रे बाप, हाय बाप रे, दुहाई परमेशवर, अरे भाइयो’। इन संबोधनों से पात्र के स्वभाव, चरित्र और उसकी परिस्थिति विशेष का पता लगता है। किसी शब्द की सार्थक आवृत्ति उस वाक्य के मूल बिम्ब को पैना कर देती है गोवर्धन की उत्तेजना और भय ‘फांसी’ शब्द की आवृत्ति से तीखे हो जाते हैं, “फांसी ! अरे बाप रे बाप फांसी, मैंने किसकी जमा लूटी है कि मुझको फांसी ! मैंने किसके प्राण मारे हैं कि मुझको फांसी ।” उनके संवादों की सफलता की कुंजी है वाक्य रचना। इनकी वाक्य रचना में अभिनय की गति, मुद्रा, स्वर के आरोह-अवरोह की अनेक संभावनाएं छिपी हैं। भारतेन्दु प्रायः एक जैसे दो वाक्य लगातार नहीं लिखते क्योंकि वाक्य में परिवर्तन अभिनय में मोड़ या लोच ले आता हैं संवाद की विशोषता वाचालता नहीं, वाग्मिता है अंधेर नगरी में वाग्मिता का निर्वाह पूरी सफलता से हुआ है। एकालाप आज नाटक का दोष माना जाता है; उसे अस्वाभाविक कहकर उसका तिरस्कार किया जाता है परन्तु एकालाप छोटा हो, परिस्थिति के अनुरूप हो तो वह नाटक का मूल्य, उसकी संवेदन शक्ति बढ़ा देता है, अंधेर नगरी के एकालाप ऐसे ही हैं उनका प्रयोग भावपूर्ण स्थलों पर किया गया है। पांचवें अंक के आरम्भ में गोवर्धनदास का एकालाप कुछ लम्बा तो अवश्य हो गया है पर वह नगरी की अवस्था पर उसकी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है अतः प्रखरता नहीं है। फिर वह गद्य में न होकर पद्य में है अतः विशेष नहीं खटकता। दूसरे दृश्य के संवाद भी एक प्रकर से पात्रों के एकालाप हैं पर वे परम्परागत अर्थ के एकालाप नहीं है। जिसमें पात्र अपना अन्तर्द्वन्द्व व्यक्त करता है, अतीत के विषय में सोचता है। उनके द्वारा लेखक दृश्य का काम लेता है और वे सामूहिक रूप से नगरी की वस्तु स्थिति का चित्र प्रस्तुत करते हैं।
रस
अंधेर नगरी प्रहसन है और उसमें हास्य-व्यंग्य की प्रधान है। अतः इस नाटक का प्रधान रस हास्य है। हास्य का परिपाक नाटक के आरंभ से होता है। कथा के विकास के साथ तीव्र होता जाता है।
चौथे दृश्य में हंसी फूट चलती है।
पांचवें दृश्य के अन्त तक पाठक दर्शक ठहाके लगाने लगता है और अन्तिम दृश्य में तो जब राजा स्वयं फांसी पर चढ़ने लगता है तो वह उसके पेट में हंसी के कारण बल पड़ने लगते हैं।
गीत
अंधेर नगरी में कुल मिलाकर पांच गीत हैं। पहले दृश्य में महन्त का राम-भजन सम्बन्धी गीत, दूसरे दृश्य में चने वाले का, पाचक चूरन बेचने वाले का गीत तथा मछली वाली का गीत तथा पाँचवें दृश्य में गोवर्धनदास का गीत ।
पहला गीत नाटक के आरम्भ में है और पात्र तथा स्थिति के अनुरूप है।
दूसरे दृश्य के तीनों गीत व्यंग्य को स्पष्ट करने वाले गीत हैं तथा गाने वलों के स्वभाव, व्यवसाय एवं नोवृत्ति के अनुरूप हैं।
पांचवें दृश्य में गोवर्धनदास का गीत नगर के प्रति उसकी प्रतिक्रिया को व्यक्त करता है। अतः प्रसाद के गीतों की तरह न तो उनकी भाषा क्लिष्ट है और न उनमें व्यक्त भाव एवं विचार सामान्य पाठक प्रेक्षक की बुद्धि और समझ के बाहर हैं। लोकगीतों की शैली अथवा भजन – शैली के ये गीत सुपाठ्य हैं, प्रेक्षकों के लिए सुगम एवं मनोरंजन के साधन हैं तथा कथ्य को स्पष्ट करने एवं व्यंग्य की शक्ति को पेस कर पाठक प्रेक्षक पर अभीष्ट प्रभाव डालने की दृष्टि से पूर्णत: सफल, अभिनेय एवं रंजक हैं।
चूरन अमल वेद का भारी ।
जिसको खते कृष्णमुरारी ||
मेरा पाचक है पचलोना |
जिसको खाता श्याम सलोना ||
भाषा
भारतेन्दु युग में पद्य में ब्रजभाषा का ही वर्चस्व था; हाँ, गद्य में खड़ी बोली का प्रयोग होने लगा था पर वह भी शुद्ध खड़ी बोली न थी; उसमें भी ब्रज भाषा तथा पूर्वी प्रयोग मिलते हैं। उधर कचहरियों में बोचलाल की भाषा में भी उर्दू शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से होता रहा जो स्वतन्त्रता प्राप्ति तक चलता रहा और आज भी उत्तर प्रदेश के पश्चिमी हिस्सों में खूब होता है। भारतेन्दु के नाटक ‘अन्धेर नगरी’ में आपको भाषा प्रयोग का यह वैविध्य देखने को मिलता है। इन नाटक के गीतों में तथा अन्य पद्यों में भी ब्रजभाषा का ही उपयोग किया गया है।
प्रथम दृश्य में महन्त जी का गीत, दूसरे दृश्य में मछली वाली का पद्य ब्रज भाषा में ही है। इसके अतिरिक्त महन्त जी की उपदेशात्मक उक्तियों में ब्रजभाषा ही प्रयुक्त की गयी है
लोभ पाप कौ मूल लो, लेभ मिटावत मान ।
लोभ कभी नहिं कीजिए, यामै नरक निदान ॥
अथवा नाटक के अन्त में महन्त जी का वचन
जहैं न धर्म न बुद्धि नहिं नीति न सुजन समाज ।
ते ऐसेहिं आपुहिं नसै, जैसे चौपट राजा।।
गद्यमय संवादों में खड़ी बोली तथा ब्रजभाषा दोनों के ही शब्द तथा वाक्य रचना मिलती है। शब्द भंडार की दृष्टि
से इस नाटक की भाषा में तत्सम तद्भव, ग्रामीण, उर्दू, तथा बोलचाल की भाषा के शब्द मिलते हैं।
भाषा में पैनापन लाने के लिए, उसे सजीव बनाने के लिए मुहावरों- गोल गाल करना, दांत खट्टे करना, छक जाना आदि लोकोक्तियों का प्रयोग भी किया गया है।
अन्धेर नगरी चौपट्ट राजा
टका सेर भाजी, टका सेर खाजा।
दूसरे दृश्य में कबाब वाला कहता है- खाय सो होंठ चाटै, न खाय सो जीभ काटै और हलवाई कहता है जो खाय सो भी पछताय, जो न खाय सो भी पछताय ।
इस नाटक की सबसे बड़ी भाषागत विशेषता है पात्रानुरूप भाषा का प्रयोग बाजार वाले दृश्य में कबाब वाला, घासीराम चने वाला, जात वाला ब्राह्मण चूरन वाला, अफगान, हलवाई, कुंजड़िन, मछली वाला, नारंगी वाली बनिया सब अपने-अपने स्तर, व्यवसाय और वर्ग की भाषा बोलते हैं। उनका उच्चारण और लहजा भी बिल्कुल सहज और स्वाभाविक है।
कबाब वाला पुकारता है-
कबाब गरमागरम मलालदार;
चने वाला आवाज लगाता है
चना चुरमुर- चुरमुर बोलै ।
बाबू खाने को मुँह खोलै ।
हलवाई कहता है-रेवड़ी कड़ाका, पापड़ पड़ाका मुगल अफगानी उच्चारण में अपनी मेवा बेचता है- आमारा ऐसा मुल्क जिसमें अंग्रेज का दाँत खुट्टा हो गया। नाहक को रुपया खराब किया। हिन्दोस्तान का आदमी लकलक हमारे यहाँ का आदमी बुंबक – बुंबक इसी प्रकार राजा की भाषा उसके बौद्धिक स्तर तथा फूहड़ प्रकृति के अनुरूप है और महन्त तथा उसके शिष्यों की भाषा और उनका उच्चारण उस समय के साधु-सन्तों जैसा है- कुछ भिच्छ /- उच्छा मिलै तो ठाकुर जी का भोग लगे और क्या। इस पर नारायण दास कहता है-गुरुजी महाराज ! नगर तो नारायण के आसरे से बहुत ही सुन्दर है जो है, सो पर भिच्छा सुन्दर मिलै तो बड़ा आनन्द होय। ये लोग अपनी आदत और अभ्यास के करण शब्दों का शुद्ध उच्चारण नहीं करते – सचमुच की जगह शचमुच करना की जगह करणा, बनिये की जगह बणिये और कितने की जगह कितणें बोलते हैं। अन्यत्र भी न्याय की जगह न्याय और रिश्वत की जगह रूशवत उच्चारण करते हैं लयात्मकता ओर तुक का प्रयोग कर भी भाषा को अभिनेकात्मक एवं सजीव बनाया गया है। नारंगी वाली कहती है-भई नीबू से नारंगी, मैं तो पिया के रंग रंगी और हलवाई कहता है- ऐसी जात हलवाई, जिसके छत्तीस कौम हैं भाई। यही सब देखकर गिरीश रस्तोगी ने लिखा है, “ नितान्त हरकत भरी, जीवन्त, सक्रिय भाषा, उच्चरित शब्दों की ध्वनियों और लयों का सौन्दर्य लिए हुए मिलती है।” यही गुण बाद में मोहन राकेश के नाटकी की भाषा में मिलता है जिसके कारण उन्हें ख्याति प्राप्त हुई। ‘अन्धेर नगरी’ की भाषा-शैली सरस, साधारण और जनता की शैली है। अपनी सादगी और स्वाभाविकता के कारण वह नाटक रचना तथा रंगमंच के लिए सर्वथा उपयुक्त है। डॉ. सत्येन्द्र तनेजा ने अन्धेर नगरी की भाषा में ठीक ही लिखा है- अन्धेर नगरी की खड़ी बोली और ब्रज भाषा की तेवर बिल्कुल भिन्न परन्तु नया है। ……… भाषिक धरातल पर एक विचित्र समन्वय मिलता है जो पुनरुत्थान की मूल विशेषता है।”