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अंधेर नगरी – कथासार
अंधेर नगरी नाटक का कथानक एक दृष्टांत की तरह है और उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार है
एक महन्त अपने दो चेलों – गोवर्धनदास और नारायणदास के साथ भजन गाते हुए एक भव्य और सुन्दर नगर में आता है। महन्त अपने दोनों चेलों को भिक्षाटन के लिए नगर में भेजता है- एक को पूर्व दिशा में दूसरे को पश्चिम दिशा में गोवर्धनदास जब आश्वासन देता है कि लोग मालदार हैं और वह पर्याप्त भिक्षा लेकर लौटेगा तो महन्त उपदेश देता है कि अधिक लोभ नहीं करना चाहिए
लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान ।
लोभ कभी नहीं कीजिए, या मैं नरक निदान ॥
अगला दृश्य बाजार का है। यहाँ सब तरह का माल बेचने वाले दुकानदार हैं- चने जोर गरम बेचने वाला घासीराम है, साग-भाजी-फल बेचने वाली कुंजड़िन है, तरह-तरह की मिठाइयाँ बेचने वाला हलवाई है. कबाब बेचने वाला है, मेवा बेचने वाला अफगान है, चूरन बेचने वाला है, मछली बेचने वाली हैं और परचून की दुकान करने वाला बनिया भी । प्रत्येक दुकानदार अपने अपने सामान को आवाज लगाकर अपने व्यवसाय के विशिष्ट लहजे में बेच रहा है। इस दृश्य का इस नाटक में बड़ा महत्त्व है।
प्रथम तो इसमें सारा देश समाया है, यहां की संस्कृति-सभ्यता की झलक मिलती हैं और दूसरी ओर देश की तत्कालीन शासन व्यवस्था पर आर्थिक शोषण एवं अंधी-नीतियों पर प्रहार है। यहाँ हर चीज का एक भाव है, हर चीज टके सेर मिलती है, भाजी और खाजा (मिठाई) सबका एक दाम है। बंगाली, जुलाहा बीबी गफूरन अफगान, मन्दिर का भितरिया, वेश्या, रिश्वत लेने वाले सरकारी कर्मचारी, नाटककार, महाजन बनिये व्यापारी, एडिटर, अंग्रेज शासक, पुलिस कर्मी लंपट युवक, टके के लिए सब कुछ बेचने वाले पण्डित-पुरोहित सबकी झांकी दी गई है और बड़ी कुशलता से उनकी दुर्बलताओं पर प्रकाश डाला गया है। अंग्रेजों पर व्यंग्य ऐसी मीठी छुरी से किया गया है कि प्रशासन चाहते हुए भी लेखक का कुछ नहीं बिगाड़ सकता क्योंकि वह घासीराम तथा चूरन बेचने वाले के गानों का हिस्सा होकर आया है.
चना हाकिम सब जो खाते ।
सब पर दूना टिकस लगाते।
या चुरन जब से हिन्द में आया।
इसका धन बल सभी घटाया।
चूरन अमले सब जो खावे ।
दूनी रिश्वत तुरत पचावै।
चूरन साहब लोग जो खाता ।
सारा हिन्द हजम कर जाता ।
चूरन पुलिस वाले खाते ।
सब कानून हजम कर जाते ।
इसी प्रकार ब्राह्मण पोंगा पण्डितों की खबर ली गई है टके के वास्ते जैसी कहो वैसी व्यवस्था दे दें। टके के वास्ते झूठ को सच करें …. टके के वास्ते धर्म और प्रतिष्ठा दोनों बेचें, टके के वास्ते झूठी गवाही दें।
गोवर्धन नगर में प्रवेश कर देखता है कि यहाँ पर हर चीज टके सेर बिक रही है। वह आश्चर्यचकित रह जाता है और उत्सुकतावश नगर और वहाँ के राजा का नाम पूछता है। हलवाई बताता है कि राजा का नाम ‘चैपट राजा’ तथा नगर का ‘अंधेर नगरी’ है। उसे लगता है कि यहाँ तो बड़ा आनन्द है अतः भिक्षा में प्राप्त सात पैसों से ढेर सारी मिठाई खरीदता है, भर पेट खाता है और शेष लेकर नाचता-गाता जंगल में पहुँच जाता है। वहाँ पहुँच कर वह गुरू जी को सारी बात बताता है और उनसे भी उसी नगरी में रहने का आग्रह करता है। महन्त जी उसे समझाते हैं कि ऐसी नगरी में रहना उचित नहीं है जहाँ सभी माल एक दाम पर बिकता हो ।
सेत सेत सब एक से जहाँ कपूर कपास ।
ऐसे देसा कुदेसा में कबहुं न कीजै वास ।।
कोकिल बायस एक सम, पण्डित मूरख एक।
इन्द्रायन दाड़िम विषय, जहाँ न नेकु विवेकु ॥
बसिये ऐसे देश नहि, कनक वृष्टि जो होय |
रहिए तो दुःख पाइये, प्रान दीजिए रोय ॥
पर गोवर्धनदास लोभ-मोह वश वहीं रहने की जिद करता है, अतः महन्त जी उसे वहाँ छोड़कर चले जाते हैं। चौथा दृश्य राज- दरबार का है जहाँ पतिक में पड़ा मूर्ख, शराबी, डरपोक, कायर, फूहड़ राजा है, खुशामदी चाटुकार मंत्री है, शराब पिलाने वाला सेवक है। तभी एक फररियादी करियाद लेकर उपस्थित होता है कि उसकी बकरी कल्लू बनिये की दीवार के गिरने से मर गई है, उसका न्याय होना चाहिए, अपराधी को दंड तथा उसे बकरी के मरने के कारण मुआवजा मिलना चाहिए।
राजा की मूर्खता के कारण अपराधी का ठीक-ठीक पता लगाने के लिए अनेक व्यक्तियों को अपराधी मानकर दरबार में हाजिर किया जाता है। बनिया, कारीगर, चूना बनाने वाला, भिश्ती, कसाई, गड़रिया और कोतवाल एक के बाद एक उपस्थित किए जाते हैं सभी एक-दूसरे पर दोष थोप कर स्वयं को निर्दोष सिद्ध करने का प्रयास करते हैं। अन्त में राजा की मूर्खता के कारण बकरी की हत्या के अपराध के लिए कोतवाल को फांसी की सजा देकर दरबार को बर्खास्त कर दिया जाता है। फरियाद की फर्याद पूरी नहीं होती, उसे बकरी के बदले मुआवजा नहीं मिलता।
पांचवाँ दृश्य जंगल का है। गोवर्धनदास मिठाई खा-खाकर मोटा हो गया हैं और बड़े आनन्द से सोने, खाने और गाने में अपना समय बितता है। दृश्य के आरम्भ में ही वह अपना हर्षोल्लास गीत के माध्यम से प्रकट करता है। पर यह गीत सामान्य गीत नहीं है जिसकी योजना केवल दर्शकों का मनोरंजन करने के लिए की गई हो। इस गीत के द्वारा भी लेखक तत्कालीन समाज में व्याप्त कुरीतियों, अव्यवस्था और नैतिक पतन की ओर इशारा करता है – वहाँ नीच – ऊँच में, पंडित – मूर्ख में, वेश्या – गृहलक्ष्मी में सत्यवादी और झूठों में कोई अन्तर नहीं रह गया है, इतना ही नहीं यहाँ सत्यवादी, पण्डित, चरित्रवान लोग मारे-मारे फिरते हैं और धूर्त, कपटी, प्रपंची मजे करते हैं, लोगों में आडम्बर और दिखावा है, कथनी-करनी में अन्तर है।
राजा को विदेश में रहने वाला, विधर्मी तथा अन्यायी बताकर लेखक ने अंग्रेजों की ओर ही इशारा किया है। गोवर्धनदास को मिठाई खा-खाकर मोटा तथा चैन की नींद सोते तथा यह कहते दिखाकर, “माना कि देश बहुत बुरा है, पर अपना क्या? अपने किसी राज-काज में थोड़े हैं कि कुछ डर है।”साधु-महात्माओं, पण्डे-पुजारियों की अकर्मण्यता एवं देश के प्रति उदासीनता का पर्दाफाश किया है और इस प्रकार समाज को उसने सचेत रहने का संकेत दिया है। कोतवाल को फांसी की सजा तो सुना दी गई पर जब सिपाही उसके पास गए तो देखा कि फांसी की रस्सी का फन्दा बड़ा है और कोतवाल की गर्दन पतली अतः उसे फांसी नहीं दी जा सकती।
जब राजा को इस बात की सूचना दी गई है तो कोतवाल को मुक्त करने और उसके स्थान पर किसी ऐसे व्यक्ति को फांसी देने का आदेश देता है जिसकी गर्दन फन्दे के लायक हो । अतः कोतवाल के स्थान पर मोटे आदमी की तलाश होती है और सिपाही गोवर्धनदस को पकड़ कर ले जाते हैं। वह बहुत दुहाई देता है, गिड़गिड़ाता है, स्वयं को निरपराध बताता है पर सिपाही यह कहकर कि वे तो हुक्मी बन्दे हैं, वही करेंगे जो राजा का हुक्म है, उसकी एक नहीं सुनते।
लेखक ने एक सिपाही के मुख से यह कहलवाकर कि “नगर भर में राजा के न्याय के डर से कोई मुटाता ही नहीं …….. फिर इस राज में साधु महात्मा इन्हीं लोगों की दुर्दशा है।”
समाज में व्याप्त विकृति और न्याय व्यवस्था पर कटाक्ष किया है।
अन्तिम दृश्य में फांसी के तख्ते की ओर ले जाए जाते समय गोवर्धनदास रोता है, गिड़गिड़ाता है,, दया की भीख मांगता है पर कुछ नहीं होता तो अपने गुरु का स्मरण करता है ! कहाँ हैं? बचाओ – गुरु जी – गुरु जी ….” गुरु प्रकट होते हैं और गोवर्धन के कान में मंत्र फूँकते हैं। वह मंत्र यह है कि जो इस साइत ( शुभ घड़ी) में मरेगा, वह सीधा स्वर्ग में जाएगा। यह सुनकर सबमें प्रतियोगिता होने लगती है कि हम फांसी पर चढ़ेंगे। अन्ततः राजा । कहता है कि, “चुप रहो सब लोग। राजा के होते और कौन बैकुंठ जा सकता है। हमको फांसी चढ़ाओ ।” और राजा के आदेश के अनुसार उसे ही फांसी के तख्ते पर खड़ा कर दिया जाता है। महंत जी की उक्ति बड़ी सटीक है
जहाँ धर्म न बुद्धि नाह, नीति न सुजान समाज ।
ते ऐसहिं आपुहिं नसे, जैसे चौपटराज ।
और इसी के साथ यह नाटक समाप्त होता है।