साहित्य को पढ़ने, सुनने या नाटकादि को देखने से जो आनन्द की अनुभूति होती है, उसे रस कहते हैं।
रस

परिभाषा
रस का शाब्दिक अर्थ है ‘आनंद’। काव्य को पढ़ने या सुनने से जिस आनंद की अनुभूति होती है, उसे ‘रस’ कहा जाता है।
रस की व्युत्पत्ति
रस की व्युत्पत्ति दो प्रकार से दी गयी है-
(1) सरति इति रसः। अर्थात जो सरणशील, द्रवणशील हो, प्रवहमान हो, वह रस है।
(2) रस्यते आस्वाद्यते इति रस:। अर्थात जिसका आस्वादन किया जाय, वह रस है।
साहित्य दर्पण के रचयिता ने कहा है- ”रसात्मकं वाक्यं काव्यम्” अर्थात रस ही काव्य की आत्मा है।
काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मटभट्ट ने कहा है कि आलम्बनविभाव से उदबुद्ध, उद्यीप्त, व्यभिचारी भावों से परिपुष्ट तथा अनुभाव द्वारा व्यक्त हृदय का ‘स्थायी भाव’ ही रस-दशा को प्राप्त होता है।
पाठक या श्रोता के हृदय में स्थित स्थायी भाव ही विभावादि से संयुक्त होकर रस रूप में परिणित हो जाता है। रस को ‘काव्य की आत्मा/ प्राण तत्व’ माना जाता है।
आचार्यों ने अपने-अपने ढंग के ‘रस’ को परिभाषा की परिधि में रखने का प्रयत्न किया है। सबसे प्रचलित परिभाषा भरत मुनि की है, जिन्होंने सर्वप्रथम ‘रस’ का उल्लेख अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘नाट्यशास्त्र’ में ईसा की पहली शताब्दी के आसपास किया था।
उनके अनुसार ‘रस’ की परिभाषा इस प्रकार है-
नाट्यशास्त्र
‘विभावानुभावव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:’
अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से रस की निष्पत्ति होती है।
काव्यशास्त्र का प्रथम आचार्य कौन हैं ?
रस संप्रदाय का प्रवर्तक किसे कहा जाता है ?
रस की निष्पत्ति कैसी होती है ?
रस-संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य कौन हैं ?
ब्रह्मानंद सहोदर किसे कहते हैं ?
ब्रह्मानंद की कल्पना का मूल स्रोत क्या है ?
किसने रस को काव्य की कसौटी माना है।
हिन्दी में रसवादी आलोचक हैं आचार्य रामचन्द्र शुक्ल डॉ० नगेन्द्र आदि। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृत के रसवादी आचार्यों की तरह रस को अलौकिक न मानकर लौकिक माना है और उसकी लौकिक व्याख्या की है। वे रस की स्थिति को ‘ह्रदय की मुक्तावस्था’ के रूप में मानते हैं। उनके शब्द हैं : ‘लोक-हृदय में व्यक्ति-हृदय के लीन होने की दशा का नाम रस-दशा है’।