श्रम विभाजन और जाति-प्रथा : बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर

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श्रम विभाजन और जाति-प्रथा पाठ का सार (Summary) 

यहाँ प्रस्तुत पाठ अंबेडकर के विख्यात भाषण एनीहिलेशन ऑफ कास्ट (1936) के ललई सिंह यादव द्वारा कृत हिंदी-रूपांतर जाति-भेद का उच्छेद के दो प्रकरणों के तौर पर है। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जी कहते हैं कि इस आधुनिक युग में भी जातिवाद को समर्थन देने वालों की कोई कमी नहीं है वे विभिन्न तर्कों के आधार पर जातिवाद का समर्थन करते रहते है। जातिवाद के उन समर्थकों द्वारा एक तर्क यह भी दिया जाता है कि आधुनिक सभ्य समाज में कार्यकुशलता के लिए कार्य विभाजन या कार्य का बंटवारा करना आवश्यक है और जातिप्रथा, कार्य विभाजन का ही दूसरा रूप है। इसीलिए उनके अनुसार जातिवाद में कोई बुराई नहीं है। परन्तु सच तो यह है कि जाति प्रथा, काम का बंटवारा करने के साथ-साथ लोगों का बंटवारा भी करती हैं। यह भी सत्य है कि 

 समाज के विकास के लिए कार्य का बंटवारा भी आवश्यक है। परन्तु समाज का विकास तभी संभव है जब यह कार्य विभाजन किसी जाति के आधार पर नहीं बल्कि व्यक्ति की योग्यता, रूचि और उसकी कार्य कुशलता व निपुणता के आधार पर हो। भारतीय समाज की जाति प्रथा की एक यह भी विशेषता है कि यह कार्य के आधार पर श्रमिकों का विभाजन नहीं करती बल्कि समाज में पहले से ही विभाजित वर्गों अर्थात ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, के आधार पर कार्य का विभाजन करती है। उदाहरण के तौर पर ब्राह्मण का बेटा वेद-पुराणों का ही अध्ययन करेगा तो क्षत्रिय का बेटा रक्षा का ही कार्य करेगा, लोहार का बेटा लोहार का ही कार्य करेगा। भले ही इन कार्यों को करने में उनकी रूचि हो या न हो। इस तरह की व्यवस्था विश्व के किसी भी समाज में नहीं दिखाई देती है।

भीमराव अंबेडकर जी कहते हैं कि एक समय के लिए जाति प्रथा को यदि श्रम विभाजन मान भी लिया जाए तो भी यह स्वाभाविक और उचित नहीं होगा। क्योंकि यह मनुष्य की रुचि के हिसाब से नहीं है। इसमें व्यक्ति जिस जाति या वर्ग में जन्म लेता हैं, उसे उसी के अनुसार कार्य करना होता हैं। भले फिर वह उसकी रूचि का कार्य हो या ना हो। अथवा वह किसी अन्य कार्य में ज्यादा निपूण हो और सबसे बड़ी बात तो यह है कि सब कुछ उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर के हिसाब से बच्चे के जन्म लेने से पहले अर्थात उसके गर्भ से ही निर्धारित कर दिया जाता है कि उसका पेशा क्या होगा। यानि वह भविष्य में क्या कार्य करेगा। जातिप्रथा का सबसे बड़ा नकारात्मक पहलू यही है।

जबकि व्यक्ति को उसकी रूचि के आधार पर कार्य करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। जैसे अगर कोई ब्राह्मण का पुत्र सैनिक, वैज्ञानिक या इंजीनियर बनकर देश सेवा करना चाहता है तो उसे ऐसा करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। कहने का अभिप्राय यह है कि व्यक्ति को अपनी रूचि व क्षमता के हिसाब से अपना कार्य क्षेत्र चुनने की पूर्ण स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। तभी देश का युवक वर्ग अपनी पूरी क्षमता से समाज व राष्ट्र निर्माण में अपनी भूमिका निभा पाएंगे।

भीमराव अंबेडकर जी प्रस्तुत पाठ में जातिप्रथा के दोष बताते हुए कहते हैं कि जातिप्रथा, व्यक्ति के कार्यक्षेत्र को पहले से ही निर्धारित तो करती ही हैं। साथ ही साथ यह मनुष्य को जीवन भर के लिए उसी पेशे के साथ बंधे रहने को मजबूर भी करती है। फिर भले ही व्यक्ति की उस कार्य को करने में कोई रुचि हो या ना हो, या फिर उस कार्य से उसकी आजीविका चल रही हो या चल रही हो, उसका और उसके परिवार का भरण पोषण हो रहा हो या ना हो रहा हो। यहाँ तक कि उस कार्य से उसके भूखे मरने की नौबत भी आ जाए तो भी, वह अपना कार्य बदल कर कोई दूसरा कार्य नहीं सकता है। जबकि आधुनिक समय में कई बार प्रतिकूल परिस्थितियाँ होने के कारण अपना और अपने परिवार की सुख-सुविधाओं के लिए इंसान को अपना पेशा या कार्यक्षेत्र बदलने की जरूरत पड़ सकती है। लेकिन अगर प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मनुष्य को अपना कार्यक्षेत्र बदलने की स्वतंत्रता ना हो तो उसके भूखे मरने की नौबत तो आयेगी ही। हिंदू धर्म की जाति प्रथा किसी भी व्यक्ति को ऐसा कोई कार्यक्षेत्र चुनने की अनुमति नहीं देती है जो उसका पैतृक पेशा ना हो। भले ही वह किसी दूसरे कार्य को करने में अधिक निपुण और पारंगत क्यों ना हो। इसीलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि कार्यक्षेत्र को बदलने की अनुमति न देकर जाति प्रथा भारत में बेरोजगारी व् भुखमरी बढ़ाने में भी अहम भूमिका निभाती है।

यदि देखा जाए तो श्रम विभाजन की दृष्टि से भी जाति प्रथा में कई दोष हैं क्योंकि जातिप्रथा में श्रम विभाजन मनुष्य की इच्छा पर निर्भर नहीं होता। इसमें मनुष्य की व्यक्तिगत भावनाओं व व्यक्तिगत रूचि का कोई स्थान और महत्व भी नहीं होता। हर जाति या वर्ग के लोगों को उनके लिए पहले से ही निर्धारित कार्य करने पड़ते है। कई लोगों को अपने पूर्व निर्धारित या पैतृक कार्य में कोई रुचि नहीं होती, फिर भी उन्हें वो कार्य करने पड़ते है। क्योंकि जाति प्रथा के आधार पर वह कार्य उनके लिए पहले से ही निश्चित है और कोई अन्य कार्य या व्यवसाय चुनने की उन्हें कोई अनुमति नहीं है। ऐसी स्थिति में जब व्यक्ति अपनी इच्छा के विपरीत किसी कार्य को करता है तो वह उस कार्य को पूरी लगन, कर्तव्यनिष्ठा और मेहनत से नहीं कर पाता और केवल कार्य को निपटाने की कोशिश करता है। और यह भी सत्य है कि जब व्यक्ति किसी कार्य को पुरे मन से अथवा लगन से नहीं करेगा तो, वह उस कार्य को पूरी कुशलता या निपुणता से कैसे कर सकता है। अतः इस बात से यह प्रमाणित होता है कि व्यक्ति की आर्थिक असुविधाओं के लिए भी जाति प्रथा हानिकारक है। क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक रुचि के अनुसार कार्य करने की अनुमति नहीं देती। और बेमन से किया गए कार्य में व्यक्ति कभी भी उन्नति नहीं कर सकता।

1. श्रम-विभाजन और जाति-प्रथा

प्रतिपादय-यह पाठ आंबेडकर के विख्यात भाषण ‘एनीहिलेशन ऑफ़ कास्ट'(1936) पर आधारित है। इसका अनुवाद ललई सिंह यादव ने ‘जाति-भेद का उच्छेद’ शीर्षक के अंतर्गत किया। यह भाषण ‘जाति-पाँति तोड़क मंडल’ (लाहौर) के वार्षिक सम्मेलन (1936) के अध्यक्षीय भाषण के रूप में तैयार किया गया था, परंतु इसकी क्रांतिकारी दृष्टि से आयोजकों की पूर्ण सहमति न बन सकने के कारण सम्मेलन स्थगित हो गया। सारांश-लेखक कहता है कि आज के युग में भी जातिवाद के पोषकों की कमी नहीं है। समर्थक कहते हैं कि आधुनिक सभ्य समाज कार्य-कुशलता के लिए श्रम-विभाजन को आवश्यक मानता है। इसमें आपत्ति यह है कि जाति-प्रथा श्रम-विभाजन के साथ-साथ श्रमिक विभाजन का भी रूप लिए हुए है।

श्रम-विभाजन सभ्य समाज की आवश्यकता हो सकती है, परंतु यह श्रमिकों का विभिन्न वर्गों में अस्वाभाविक विभाजन नहीं करती। भारत की जाति-प्रथा श्रमिकों के अस्वाभाविक विभाजन के साथ-साथ विभाजित विभिन्न वर्गों को एक-दूसरे की अपेक्षा ऊँच-नीच भी करार देती है। जाति-प्रथा को यदि श्रम-विभाजन मान लिया जाए तो यह भी मानव की रुचि पर आधारित नहीं है। सक्षम समाज को चाहिए कि वह लोगों को अपनी रुचि का पेशा करने के लिए सक्षम बनाए। जाति-प्रथा में यह दोष है कि इसमें मनुष्य का पेशा उसके प्रशिक्षण या उसकी निजी क्षमता के आधार पर न करके उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर से किया जाता है। यह मनुष्य को जीवन-भर के लिए एक पेशे में बाँध देती है। ऐसी दशा में उद्योग-धंधों की प्रक्रिया व तकनीक में परिवर्तन से भूखों मरने की नौबत आ जाती है। हिंदू धर्म में पेशा बदलने की अनुमति न होने के कारण कई बार बेरोजगारी की समस्या उभर आती है।

जाति-प्रथा का श्रम-विभाजन मनुष्य की स्वेच्छा पर निर्भर नहीं रहता। इसमें व्यक्तिगत रुचि व भावना का कोई स्थान नहीं होता। पूर्व लेख ही इसका आधार है। ऐसी स्थिति में लोग काम में अरुचि दिखाते हैं। अत: आर्थिक पहलू से भी जाति-प्रथा हानिकारक है क्योंकि यह मनुष्य की स्वाभाविक प्रेरणा, रुचि व आत्म-शक्ति को दबाकर उन्हें स्वाभाविक नियमों में जकड़कर निष्क्रिय बना देती है।

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