यात्रावृत्त – भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण आयाम

यात्रावृत्त – भारतीय साहित्य का एक महत्वपूर्ण आयाम

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत में विदेश यात्रा की प्रवृत्ति ने एक नया मोड़ लिया। विशेष रूप से 20वीं सदी के मध्य में जब भारत ने अपनी स्वतंत्रता को प्राप्त किया और विश्वभर के देशों के साथ राजनयिक एवं सांस्कृतिक संबंधों की नींव डाली, तब भारतीय लेखकों ने इन यात्राओं के अनुभवों को साहित्य का हिस्सा बनाया। इनमें से कुछ लेखक अपने अनुभवों को काव्य, गद्य या यात्रा वृतांत के रूप में प्रस्तुत करते थे। इस प्रकार के यात्रावृत्तों ने न केवल भारत की सामाजिक और सांस्कृतिक तस्वीर को दिखाया, बल्कि समग्र वैश्विक दृष्टिकोण को भी सामने रखा।

स्वतंत्रता और यात्राओं का संबंध

स्वतंत्रता के बाद भारतीय लेखकों के बीच विदेश यात्रा का प्रचलन बढ़ा, विशेष रूप से साम्यवादी विचारधारा के प्रभाव में। इन यात्राओं का मुख्य उद्देश्य न केवल बाहरी देशों के समृद्ध और विकसित समाजों का अवलोकन करना था, बल्कि भारतीय राजनीति, संस्कृति और समाज को वैश्विक संदर्भ में देखने का था। भारत के कई लेखक जैसे स्वामी सत्यदेव, कन्हैयालाल मिश्र आर्य, राहुल सांकृत्यायन, और पं. नेहरू ने अपनी यात्राओं के अनुभवों को यात्रावृत्तों के रूप में प्रस्तुत किया।

प्रमुख यात्रावृत्तों का विवरण

  1. स्वामी सत्यदेव की ‘मेरी पाँचवीं जर्मन यात्रा’ (1955): स्वामी सत्यदेव का यात्रावृत्त विशेष रूप से जर्मनी में किए गए अपने भ्रमण पर आधारित है, जिसमें उन्होंने अपनी यात्रा का सजीव और व्यक्तिगत अनुभव प्रस्तुत किया।
  2. कन्हैयालाल मिश्र की ‘मेरी इराक यात्रा’ (1940): यह यात्रावृत्त लेखक के इराक भ्रमण के दौरान वहां के समाज, संस्कृति और राजनीति की सजीव झलक प्रस्तुत करता है।
  3. राहुल सांकृत्यायन की ‘रूस में पच्चीस मास’ और ‘रूस यात्रा’: राहुल सांकृत्यायन ने रूस की यात्रा के दौरान वहां की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का गहरा अध्ययन किया और इसे अपनी रचनाओं में शामिल किया।
  4. महेशप्रसाद श्रीवास्तव की ‘दिल्ली से मास्को’: यह यात्रावृत्त रूस के समृद्ध संस्कृति और वहाँ के साम्यवादी दृष्टिकोण को दर्शाता है।
  5. डॉ. सत्यनारायण का ‘रोमांचक रूस’: इस काव्यात्मक रचनाओं में लेखक ने रूस की यात्रा के दौरान वहां की जीवनशैली और संस्कृति का विशेष रूप से वर्णन किया है।

स्वदेश यात्रा और हिमालय यात्रा

स्वदेश यात्रा पर भी कई काव्य और गद्य रचनाएँ प्रकाशित हुईं। इनमें स्वामी प्रणवानन्द और स्वामी रामानन्द द्वारा रचित ‘कैलाश मानसरोवर’ और ‘कैलाश दर्शन’ शामिल हैं, जिनमें हिमालय की पर्वत श्रृंखलाओं का सौंदर्य चित्रित किया गया है। इसी प्रकार, विष्णु प्रभाकर की ‘ज्योतिपुंज हिमालय’ और राहुल सांकृत्यायन की ‘किन्नर देश में’ भी उल्लेखनीय यात्रावृत्त हैं। इन रचनाओं में प्रकृति के साथ लेखक के मानसिक और आत्मिक संघर्ष को प्रस्तुत किया गया है।

अज्ञेय और मोहन राकेश के योगदान

अज्ञेय ने ‘अरे यायावर रहेगा याद’ (1953) में अपनी यात्रा का विस्तृत वर्णन किया है, जो असम से लेकर पश्चिमी सीमा प्रान्त तक की यात्रा पर आधारित है। मोहन राकेश की ‘आखिरी चट्टान तक’ (1953) में भी यात्रा का अद्वितीय और सृजनात्मक चित्रण किया गया है, जो समकालीन यात्रा साहित्य में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

स्थानीय जीवन और लोकसंस्कृति का चित्रण

कुछ यात्रा लेखक अपने स्थानीय जीवन और संस्कृति के विश्लेषण में भी गहरी रुचि रखते थे। जैसे, प्रभाकर द्विवेदी ने ‘पार उतरि कहं जइहों’ (1958) में गोंडा और बस्ती जिले के लोकजीवन का चित्रण किया। इसी प्रकार, काका कालेलकर ने ‘हिमालय की यात्रा’ (1948) और ‘सूर्योदय का देश’ (1955) में भारतीय संस्कृति और जीवन की सुंदरता को दर्शाया।

निष्कर्ष

यात्रावृत्तों ने भारतीय साहित्य में एक नया आयाम जोड़ा, जिसमें न केवल बाहरी देशों का चित्रण था, बल्कि स्वदेश की संस्कृति, राजनीति और समाज की विविधताओं का भी बारीकी से अध्ययन किया गया। यह यात्रावृत्त साहित्य के माध्यम से लेखकों ने अपने अनुभवों और दृष्टिकोणों को साझा किया, जिससे भारतीय समाज और संस्कृति को वैश्विक संदर्भ में समझने का एक अवसर मिला। इन रचनाओं में केवल भौतिक यात्रा का विवरण नहीं था, बल्कि मानसिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक यात्राओं का भी वर्णन किया गया।