रीतिकालीन :सामाजिक धार्मिक और कलात्मक परिस्थितियाँ

रीतिकाल का साहित्य समाज, धर्म और कला की परिस्थितियों से गहरे रूप से प्रभावित था। इस काल में विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक बदलावों ने साहित्य के रूप और दृष्टिकोण को प्रभावित किया। रीतिकाल में उत्पन्न ये परिस्थितियाँ समाज की वास्तविकता और साहित्य की दिशा को रेखांकित करती हैं।

सामाजिक परिस्थितियाँ

  1. विलासिता और सामंतवादी शोषण: रीतिकाल में राजा-महाराजाओं और सामंतों की विलास लिप्सा का समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा। शाही दरबारों में भोग विलास की प्रवृत्तियाँ बढ़ी, जबकि सामंत और अमीर-उमराव गरीब जनता का शोषण करते थे। इन शोषणों से प्राप्त करों का उपयोग ऐश्वर्य और विलासिता की ओर होता था। इस सामाजिक संरचना में नारी के प्रति सम्मान कम हो गया, और महिलाओं की स्थिति लगातार दीन-हीन होती चली गई।
  2. सामाजिक असमानता और शोषण: सामंतवाद की जड़ें गहरी हो चुकी थीं। गाँवों और नगरों में आम जनता अकाल और महामारियों से त्रस्त थी। इसके साथ ही सामंतों और राजाओं के शोषण के कारण समाज में असमानताएँ और विषमताएँ बढ़ गईं। अंधविश्वास भी समाज में व्याप्त हो चुका था, जिससे जनजीवन और भी कठिन हो गया था।
  3. राष्ट्रीयता की हानि: रीतिकाल में राष्ट्रीयता की भावना कमजोर हो गई थी। साम्राज्यवादी शासन और विदेशी आक्रमणों ने भारतीय समाज को तोड़ दिया था, और इसके परिणामस्वरूप समाज में एकजुटता की कमी और सामूहिक उद्देश्य की भावना लगभग समाप्त हो गई थी। रीतिकाव्य में भी राष्ट्र और समाज के प्रति लगाव की भावना न्यूनतम थी, क्योंकि कवि और लेखक अधिकतर व्यक्तिगत और शृंगारी विषयों पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे।

धार्मिक परिस्थितियाँ

  1. धर्म का विकृत रूप: रीतिकाल में धर्म की सच्चाई और नैतिकता पर सवाल उठने लगे थे। धार्मिक आस्थाएँ और भक्ति का रूप अधिक बाह्याडम्बर और शृंगारिकता में परिवर्तित हो गया था। विशेषकर राधा और कृष्ण की भक्ति में आध्यात्मिक तत्व की बजाय स्थूल ऐंद्रियकता और शृंगारी तत्व प्रमुख हो गए थे।
  2. अंधविश्वास और रूढ़िवादिता: इस काल में अंधविश्वास और रूढ़ियाँ समाज में घातक रूप से फैल चुकी थीं। धार्मिक क्रियाएँ और कर्मकाण्ड बाहरी दिखावे और प्रदर्शन पर आधारित हो गए थे, जिससे असली धार्मिकता और नैतिकता की भावना कमजोर हो गई।
  3. भक्तिकाव्य का क्षरण: भक्तिकाव्य का आदर्श, जो पहले राधा-कृष्ण के प्रेम की आध्यात्मिकता और भक्ति पर आधारित था, अब शारीरिक और ऐंद्रिक प्रेम की ओर मुड़ चुका था। यह परिवर्तन धार्मिक विश्वासों के विकृत होने और आस्थाओं के बाहरी रूपों में परिणत होने का संकेत था।

कलात्मक और साहित्यिक परिस्थितियाँ

  1. कला और शिल्प की स्थिति: मुग़लकाल के दौरान शिल्पकला, चित्रकला और संगीत में काफी प्रगति हुई थी। हालांकि, रीतिकाल में ये सभी कलाएँ प्रदर्शन की प्रमुखता की ओर मुड़ीं। विशेष रूप से दरबारों में कला और साहित्य को राजाश्रय प्राप्त था, और यह कला केवल दरबारियों की संतुष्टि के लिए होती थी। इस कारण से कवि, चित्रकार, और संगीतज्ञ अपनी स्वतंत्र दृष्टि से काम नहीं कर पा रहे थे और उन्हें केवल दरबारी रुचियों को ध्यान में रखते हुए काम करना पड़ता था।
  2. साहित्य में चमत्कारवाद और शृंगारी प्रवृत्तियाँ: इस काल के साहित्य में चमत्कारवृत्ति, अलंकार की अतिशयता, और शृंगारी प्रवृत्तियाँ प्रमुख थीं। साहित्य में रोमानी वातावरण की सृष्टि की जाती थी, जो वास्तविकता से अधिक काल्पनिक और सौंदर्यबोध से भरी होती थी। साहित्यकार अपनी काव्य रचनाओं में पाण्डित्य प्रदर्शन, शृंगारीता और चमत्कार का सामूहिक रूप से प्रयोग करते थे।
  3. परंपरावाद और दिखावा: साहित्य और कला में परंपरावाद का बोलबाला था, जिसमें नायक-नायिका की भव्यता, शृंगारी प्रेमकथाएँ और अलंकार का अत्यधिक प्रयोग किया जाता था। इस काल के कवि और लेखक अधिकतर आश्रयदाताओं की कृपा पर निर्भर थे और उनकी साहित्यिक रचनाएँ आश्रयदाता के सुख-प्रमोद और वैभव को संतुष्ट करने के लिए थीं।

निष्कर्ष

रीतिकाल की सामाजिक, धार्मिक, और कलात्मक परिस्थितियाँ भारतीय समाज की विकृतियों और अस्तित्व के संकट का चित्रण करती हैं। इस समय में धर्म, समाज और कला की वास्तविकता में एक प्रकार का क्षरण हुआ, और इन स्थितियों ने साहित्य को अधिक शृंगारी, चमत्कारी और प्रदर्शनप्रिय बना दिया। रीतिकाल का साहित्य यद्यपि कला की दृष्टि से समृद्ध था, लेकिन उसमें सामाजिक और धार्मिक सुधारों के लिए कोई विशेष स्थान नहीं था।